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भारत की जनजातीय कला और सांस्कृतिक विरासत ने IITF में बिखेरी चमक

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भारत की जीवंत सांस्कृतिक धरोहर का उत्सव

भारत में 705 से अधिक जनजातीय समुदाय रहते हैं, जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 8.6% हैं। ये समुदाय अपनी अनूठी पारंपरिक कलाओं और हस्तशिल्प के लिए जाने जाते हैं, जो सदियों से उनकी संस्कृति का हिस्सा रहे हैं।

नई दिल्ली में आयोजित 44वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेले (IITF) में इसी समृद्ध जनजातीय कला और विरासत का उत्सव मनाया जा रहा है, जिसका उद्देश्य ‘एक भारत–श्रेष्ठ भारत’ की भावना को और मजबूत करना है। इस मेले में देशभर की जनजातियों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया, जिसे भारत सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों का सहयोग प्राप्त है।

जनजातीय कला और हस्तशिल्प को बढ़ावा

भारत रेशम उत्पादन में दुनिया में दूसरे स्थान पर है। रेशम, जिसे ‘रेशों की रानी’ कहा जाता है, 15वीं शताब्दी से भारत की अर्थव्यवस्था और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है।
आज कई जनजातीय समुदाय विशेष प्रकार का रेशमी कपड़ा और हस्तशिल्प बनाते हैं। देशभर के 52,000 गांवों में लगभग 97 लाख लोग इस क्षेत्र से जुड़े हुए हैं।

गोंड जनजाति के सचिन वाल्के – तसर रेशम के शिल्पकार

महाराष्ट्र के नागपुर से गोंड जनजाति के सचिन वाल्के और उनका परिवार तसर रेशम की साड़ी बनाते हैं, जिन पर वारली और करवत जैसे पारंपरिक डिजाइन उकेरे जाते हैं।
TRIFED (जनजातीय सहकारी विपणन विकास प्रबंधन महासंघ) ने उन्हें IITF और दिल्ली में आयोजित आदि महोत्सव में अपना काम प्रदर्शित करने में मदद की। वाल्के कहते हैं,
“कपास से लेकर अंतिम उत्पाद तक—हम सब कुछ खुद करते हैं। मेले हमारे लिए खरीदारों तक पहुंचने का सबसे बड़ा माध्यम हैं।”

TRIFED की प्रमुख रणनीतियाँ

  1. क्षमता निर्माण – स्वयं सहायता समूह, प्रशिक्षण और जागरूकता कार्यक्रम

  2. बाज़ार विकास – राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय बाजारों में जनजातीय उत्पादों की पहुंच

  3. ब्रांड निर्माण – जनजातीय उत्पादों की पहचान और स्थायी विपणन

भारत दुनिया का एकमात्र देश है जो सभी चार वाणिज्यिक रेशम—मल्बरी, तसर, एरी और मूगा—का उत्पादन करता है।

गुजरात की महिला कारीगर – अप्लीक व मिरर वर्क

गुजरात के बनासकांठा जिले की उगामबेन रामाभाई सुथार सहित 300 महिलाएं अप्लीक और कांच के काम वाले वस्त्र तैयार करती हैं। पहले वे केवल स्थानीय बाजारों तक सीमित थीं, पर अब TRIFED के सहयोग से उन्हें देशभर में पहचान मिल रही है।
उनके रिश्तेदार प्रिंस कुमार लालजीभाई भी IITF में शामिल हुए और बताया कि “आदि महोत्सव में हमें बहुत अच्छा रिस्पांस मिला।”

झारखंड की पाइटकर कला – एक विलुप्त होती कला को बचाने का प्रयास

झारखंड के पूर्वी सिंहभूम जिले से झंतु गोपे पाइटकर (Pyatkar) कला को बचाने की कोशिश कर रहे हैं।
यह भारत की सबसे पुरानी लिपिक (narrative) कलाओं में से एक है—प्राकृतिक रंगों से बनी स्क्रॉल-पेंटिंग, जिनमें नृत्य, गीत, मिथक और लोक कथाएं दर्शाई जाती हैं।
गोपे बताते हैं कि इस क्षेत्र की कई पारंपरिक परिवार अब इसे बनाना छोड़ चुके हैं, लेकिन झारखंड कला मंदिर और मुख्यमंत्री लघु एवं कुटीर उद्योग विकास बोर्ड ने उन्हें मेलों में प्रदर्शित करने का अवसर दिया।

मध्य प्रदेश का भारेवां कला – कबाड़ से कला का निर्माण

मध्य प्रदेश के बैतूर से विशाल बागमारी "भारेवां" कला को जीवित रखे हुए हैं। कबाड़ धातुओं से देवी-देवताओं की मूर्तियां, आभूषण और सजावटी वस्तुएं बनाना इस कला की विशेषता है। गोंड जनजाति के उप-समूह भारेवां समुदाय में यह परंपरा पीढ़ियों से चली आ रही है।

निष्कर्ष

भारत अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला (IITF) जनजातीय कला और परंपराओं को संरक्षित करने के राष्ट्रीय प्रयास का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
सरकारी संस्थाएं जनजातीय कलाकारों को मंच और बाजार उपलब्ध कराकर न सिर्फ उनकी कला को जीवित रख रही हैं, बल्कि उनके समुदायों को आर्थिक रूप से सशक्त भी बना रही हैं।

भारत की "एकता में विविधता" को प्रदर्शित करती यह पहल सुनिश्चित करती है कि जनजातीय कला आने वाली पीढ़ियों तक जीवंत बनी रहे।

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