आनंदराम साहू
महासमुंद। "साहब मैं तो जन्म से दिव्यांग हूं। घिसटकर चलना मेरी नियति बन चुकी है। जमीन पर घिसट-घिसटकर न चलना पड़े, इसके लिए बस बैटरी चलित एक ट्रायसिकल चाहिए। बीते पांच साल से महासमुंद कलेक्ट्रेट का चक्कर काट रहा हूं। लेकिन, प्रशासन में बैठे गूंगे-बहरे लोगों को मेरी 80 प्रतिशत तक अस्थि बाधित दिव्यांगता से कोई सरोकार नहीं। मेरी आवाज इनकी कानों में सुनाई नहीं देते। ये कब मदद मिलेगी बोल नहीं सकते। मेरी व्यथा इन्हें दिखाई नहीं देती है। इससे ऐसा लगने लगा है कि क्या दिव्यांग हो गई है हमारी प्रशासनिक व्यवस्था ?"
ऐसा कहना है मुड़ियाडीह (खल्लारी) गांव के पूनम का। दरअसल, पूनम पटेल बीते पांच वर्षों से ट्रायसिकल के लिए कलेक्टर कार्यालय महासमुन्द का चक्कर लगाते हुए थक गए हैं। अब उनका सब्र का बांध फूट पड़ा है। तब प्रशासनिक व्यवस्था को जमकर कोस रहे हैं।प्रशासनिक उदासीनता से आम आदमी की व्यथा को बयां करने वाला है पूनम की दास्तान। दिव्यांग पूनम पटेल बताते हैं कि पात्रता होने के बावजूद भी बीते 5 साल से अधिकारी केवल आश्वासन ही दे रहे हैं।
दोनों पैर से दिव्यांग 30 वर्षीय युवा पूनम पटेल को महज एक ट्रायसिकल की दरकार है। जिससे वह जीवन में कुछ कर सके। उसका सपना है कि ट्रायसिकल के सहारे चल पाए। प्रकृति ने ऐसा खिलवाड़ किया कि वह अपने पांव पर खड़ा नहीं हो सकता है। अब अफसरशाही के चलते उसकी भावनाओं का सम्मान नहीं होने से वह व्यथित है। व्यवस्था को कोसने विवश हैं। पूनम बताते हैं कि वह और उसकी जुड़वा बहन दोनों दिव्यांग हैं। बहन तो चल-फिर सकती है। पूनम घुटनों के बल जमीन पर घिसटकर नित्य कर्म आदि के लिए जाते हैं।
कलेक्टर बदले लेकिन पूनम को नहीं मिला ट्रायसिकल
नियमतः 80% दिव्यांगता पर बैटरी चलित ऑटोमेटिक ट्रायसिकल दिए जाने का प्रावधान है। इसकी जानकारी मिलने पर पूनम ने कलेक्टर जनदर्शन में वर्ष 2017 में तत्कालीन कलेक्टर उमेश अग्रवाल के समक्ष आवेदन किया। समय बीतता गया। दर्द बढ़ती गई। हिमशिखर गुप्ता, सुनील जैन, कार्तिकेया गोयल और अब वर्तमान में कलेक्टर डोमन सिंह पदस्थ हैं। इस दौरान किसी भी कलेक्टर को पूनम की हालत पर तरस नही आया। उसका आवेदन समाज कल्याण विभाग में धूल खाते पड़ा है। जहां सम्पर्क करने पर उसे केवल यही बताया जाता है कि अभी ऑटोमेटिक ट्रायसायकल की सप्लाई नहीं हो रही है। जैसे ही खरीदी होगी,दे दी जाएगी। कब खरीदी होगी, कब मिलेगी? ये अनुत्तरित सवाल हैं।
मदद की आस में पूनम
अब तो उम्मीद की किरणें भी क्षीण होने लगी है। पूनम को कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं से मिले पुख्ता आश्वासन कि सामान्य ट्रायसिकल ही विभाग से ले लो उसे ऑटोमेटिक बनवा कर देंगे, इस आश्वासन के बाद न चाहते हुए भी पूनम ने ट्राइसिकल स्वीकार किया फिर सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर मदद की आस से देखने लगा। जहां से भी आज-कल-परसों बनवाते हैं का आश्वासन दिया जाता रहा। अब सात महीने पहले ही ट्रायसिकल देने की बात कहकर उसकी तकलीफ को और बढ़ा दिया गया है।