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इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में ‘संस्कृति: जम्मू-कश्मीर’ फिल्म एवं कॉफी टेबल बुक का लोकार्पण

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जम्मू-कश्मीर केवल प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण क्षेत्र ही नहीं है, बल्कि प्राचीन काल से यह भारत की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक चेतना का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। इसी मूल भाव को रेखांकित करती एक महत्वपूर्ण फिल्म और कॉफी टेबल बुक ‘संस्कृति: जम्मू-कश्मीर’ का लोकार्पण आज इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (IGNCA) में किया गया। कार्यक्रम का आयोजन IGNCA के मीडिया सेंटर द्वारा किया गया। यह फिल्म IGNCA द्वारा निर्मित है, जिसके लेखक एवं सह-निर्माता राजन खन्ना हैं, जबकि निर्देशक एवं संपादक शिवांश खन्ना हैं।

कार्यक्रम की अध्यक्षता IGNCA के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने की। इस अवसर पर वरिष्ठ लेखक एवं प्रसारक गौरीशंकर रैना, फिल्म के लेखक राजन खन्ना तथा मीडिया सेंटर के नियंत्रक  अनुराग पुनेठा उपस्थित रहे। कार्यक्रम के दौरान ‘संस्कृति: जम्मू-कश्मीर’ विषय पर एक सार्थक पैनल चर्चा भी आयोजित की गई, जिसमें डॉ. सच्चिदानंद जोशी, राजन खन्ना और गौरीशंकर रैना ने अपने विचार साझा किए।

डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने कहा कि ‘संस्कृति: जम्मू-कश्मीर’ में दिखाए गए स्थलों पर शूटिंग करना आसान नहीं था। ये स्थान न केवल भौगोलिक दृष्टि से कठिन हैं, बल्कि हाल के समय में इन तक पहुंच भी अत्यंत सीमित हो गई है। कई ऐसे स्थल हैं जिनके चित्र दुर्लभ हैं और फिल्म में ऐसे ही दुर्लभ स्थलों की फुटेज शामिल की गई है। उन्होंने कहा कि इतिहास को विकृत करने और हमारी परंपराओं को मिटाने के निरंतर प्रयासों के बीच यह फिल्म एक प्रकाश स्तंभ की तरह खड़ी होगी, जो हमारी परंपराओं और इतिहास को उजागर करेगी। इस फिल्म के माध्यम से वे युवा, जो जम्मू-कश्मीर के वास्तविक इतिहास से परिचित नहीं हैं लेकिन उसे जानना चाहते हैं, निश्चित रूप से जुड़ सकेंगे।

उन्होंने फिल्म के निर्देशक शिवांश खन्ना से आग्रह किया कि महत्वपूर्ण मंदिरों और स्थलों के प्रभावशाली दृश्यों को लघु रील्स के माध्यम से प्रसारित किया जाए, जिससे दर्शकों की रुचि बढ़े और फिल्म का व्यापक प्रचार हो सके।

फिल्म के लेखक राजन खन्ना ने कहा कि जैसे शरीर और आत्मा का संबंध होता है, वैसे ही राष्ट्र, संस्कृति और भूगोल का भी गहरा संबंध है। शरीर नश्वर है, लेकिन राष्ट्र और संस्कृति शाश्वत हैं। भारत फूलों का एक गुलदस्ता है और जम्मू-कश्मीर की संस्कृति उसमें एक विशिष्ट पुष्प के समान है, जिसमें आध्यात्म, इतिहास और दर्शन का अद्भुत संगम है। उन्होंने कहा कि कश्मीर का उल्लेख होते ही अक्सर आतंकवाद या उग्रवाद की चर्चा होती है, लेकिन इसकी 10,000 वर्ष पुरानी सभ्यता, अनंतनाग जैसे प्राचीन नगर और ऋग्वैदिक परंपराओं से जुड़े इतिहास की चर्चा क्यों नहीं होती। यदि हम स्वयं अपनी सभ्यतागत जड़ों को पुनः स्थापित नहीं करेंगे, तो भविष्य हमें माफ नहीं करेगा।

वरिष्ठ लेखक गौरीशंकर रैना ने कहा कि इस तरह की फिल्म बनाना अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है। मंदिरों और सांस्कृतिक स्थलों पर फिल्मांकन के लिए अनेक अनुमतियों और कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। साथ ही, इससे जुड़ा शोध कार्य भी अत्यंत समयसाध्य और श्रमसाध्य होता है। डिजिटल युग में फिल्म एक ऐसा प्रभावी माध्यम है, जिसके जरिए सार्थक और गहन कथ्य को समाज तक पहुंचाया जा सकता है।

कार्यक्रम के प्रारंभिक संबोधन में अनुराग पुनेठा ने कहा कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से किसी विषय को दस्तावेज़ करने वाली फिल्में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। पिछले कुछ दशकों में कश्मीर को मुख्यतः संघर्ष क्षेत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जबकि इसकी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत आज भी जीवित है। यह फिल्म उसी स्मृति को पुनः जागृत करने का एक विनम्र प्रयास है।

फिल्म के बारे में

फिल्म ‘संस्कृति: जम्मू-कश्मीर’ जम्मू-कश्मीर की मनोरम प्राकृतिक छटा के बीच रची गई है। यह फिल्म क्षेत्र की प्राचीन आध्यात्मिक चेतना का स्मरण कराती है, जिसे इतिहासकार कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी में असंख्य मंदिरों से सुसज्जित भूमि के रूप में वर्णित किया था। फिल्म में सिख और डोगरा शासकों द्वारा मंदिरों के पुनरुद्धार, हरवान मठ में आयोजित चतुर्थ बौद्ध संगीति, गुरु हरगोबिंद जी की कश्मीर यात्रा, तथा पहलगाम के ममलेश्वर मंदिर से लेकर गुलमर्ग और जम्मू के ऐतिहासिक मंदिरों तक की कम जानी-पहचानी परंपराओं को प्रभावशाली दृश्य माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।

यह फिल्म दर्शकों को उस सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत से पुनः जोड़ने का प्रयास है, जहां हर पत्थर में स्मृति, श्रद्धा और निरंतरता की गूंज समाहित है।

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