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आजादी के आंदोलन में छत्तीसगढ़ के जनजातीय योद्धाओं की भी रही है अहम भूमिका

शगुफ्ता शीरीन 

एक ओर जहां देश में जहां पहली बार जनजातीय गौरव दिवस मनाया जा रहा है। वहीं, छत्तीसगढ़ में भी ऐसे अनेक आदिवासी जननायक हुए हैं, जिन्होंने आजादी के लिए ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ संघर्ष में प्राणों की आहुति दी है। इन आदिवासी योद्धाओं ने जल, जंगल, जमीन, आदिवासी अस्मिता की रक्षा और देश की आजादी के लिए अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई है। यूं तो छत्तीसगढ़ में बस्तर क्षेत्र में भूमकाल आंदोलन अंग्रेजों को झकझोंरने में महत्वपूर्ण रहा। वहीं, इसके पूर्व भी जनजातीय योद्धाओं ने शोषण के खिलाफ अपनी आवाज़ मुखर की और अंग्रेजों का पूरजोर विरोध किया। ये सभी आंदोलन इतिहास में दर्ज हैं, जिनसे युवा पीढ़ी सदैव प्रेरणा लेती रहेगी। 

छत्तीसगढ़ में पहला जनजातीय आंदोलन 1774 ई. में अजमेर सिंह के नेतृत्व में किया गया। नारायणपुर तहसील के परलकोट के जमीदार गेंदसिंह ने अंग्रेजों और मराठों के विरूद्ध विद्रोह किया। तत्कालीन बस्तर रियासत की राजधानी जगदलपुर में डोंगर को उप राजधानी बनाकर वहां के राजा अपने पुत्रों को गवर्नर नियुक्त करते थे। बस्तर के राजा दलपत सिंह ने अपने पुत्र अजमेर सिंह को डोंगर का गवर्नर बनाया। दलपत सिंह के बाद जब दरियादेव सन् 1774 में बस्तर का राजा बना, तो उसने डोंगर क्षेत्र की उपेक्षा की। 

शासकों की अधीनता स्वीकार 

हल्बा विद्रोहियों ने दरियादेव के खिलाफ विद्रोह किया। इस विद्रोह में डोंगर क्षेत्र मराठों के अधीन चले गया। इस बीच, क्षेत्र में अकाल पड़ा और अराजकता फैल गई। कांकेर की सेना और दरियादेव के बीच हुए संघर्ष में दरियादेव परास्त हुआ। वह ब्रिटिश कंपनी और मराठों के साथ मिल गया। उसने दुबारा अजमेर सिंह से युद्ध किया। इस विद्रोह में अजमेर सिंह मारा गया। हल्बा विद्रोह के बाद दरियादेव ने 1778 में एक संधि पत्र पर हस्ताक्षर कर मराठी शासकों की अधीनता स्वीकार की। 

साल 1825 में हुआ था तीसरा विद्रोह

 छत्तीसगढ़ में भोपाल-पट्टनम संघर्ष 1795 ई. में हुआ, जो दूसरा विद्रोह माना जाता है। यह सीमित संघर्ष था। वर्ष 1795 ई. में ब्रिटिश यात्री कैप्टन जे.टी. ब्लंट बस्तर की सीमा पर पहुंचे, तब आदिवासी समाज के लोगों ने उनका विरोध किया और उन्हें वापस लौटना पड़ा। इसी तरह, सन् 1825 ई. में तीसरा विद्रोह जनजातीय समुदाय के योद्धाओं ने गेंद सिंह के नेतृत्व किया। गेंदसिंह अबूझमाड़ क्षेत्र के वीर आदिवासी थे। उनके साथी बाण, कुल्हाड़ी से लैस होकर शोषण करने वाले ब्रिटिश सैनिकों पर हमला करते थे। उन्होंने युद्ध का छापामार तरीका अपनाया था। ये जनजातीय योद्धा अपने क्षेत्र में गैर आदिवासियों के शोषण के खिलाफ आवाज़ उठा रहे थे। 

ब्रिटिश सैनिकों ने किया था गिरफ्तार

इस युद्ध में अबूझमाड़ की सेना परंपरागत तरीके से विरोध कर रही थी। जबकि ब्रिटिश सैनिक आधुनिक हथियारों से लैस थे। इस विद्रोह में गेंदसिंह के पास संसाधनों की कमी हुई और उन्हें ब्रिटिश सैनिकों ने गिरफ्तार कर लिया। गेंदसिंह को महल के सामने ही फांसी दे दी गई। आदिवासी क्षेत्रों में ब्रिटिश साम्राज्य के बढ़ते प्रभाव से जंगल में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लोग काफी विचलित हुए। वे अपनी संस्कृति में विदेशी दखल सहन नहीं कर सकें और लगातार विरोध करते रहे। इसी बीच मराठा शासक ने तारापुर परगना में किसानों से कर वृद्धि में बढ़ोतरी कर दी। इसका विरोध तारापुर के गवर्नर दलगंजन सिंह ने किया। 

आत्मसमर्पण के लिए मजबूर

ब्रिटिश और मराठा रियासतें इन इलाकों में अपना वर्चस्व बढ़ा रही थी। वहीं, आदिवासी किसानों ने बढ़े हुए कर देने से इंकार कर दिया और 1842 से 1854 ई. के बीच चौथा विद्रोह शुरू हुआ, जिसे तारापुर विद्रोह के नाम से जाना जाता है। इस विद्रोह में ब्रिटिश सैनिकों ने दलगंजन सिंह को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया। इतना ही नहीं उन्हें नागपुर जेल में 6 माह की सजा भी दी गई। 

ब्रिटिश सेना ने खत्म किया आंदोलन

आदिवासी इलाकों में जनजातीय समाज के लोग अपनी जमीन, जंगल, परंपराओं और संस्कृति पर विदेशी हुकुमतों के बढ़ता वर्चस्व के खिलाफ लगातार विरोध प्रदर्शन करते रहे। दंतेवाड़ा जिले में मेरिया आदिवासी अपनी परंपरा के खिलाफ दंतेवाड़ा मंदिर में विदेशी हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं कर पाए और उन्होंने विद्रोह कर दिया। हिड़मा मांझी के नेतृत्व में 1842 को हुआ यह विद्रोह छापामार शैली में था। मेरिया आदिवासी ब्रिटिश सैनिकों पर पत्थर फेंकते थे। इनके विद्रोह को कुचलने के लिए अतिरिक्त ब्रिटिश सैनिक बुलाए गए और अन्ततः ये आंदोलन भी ब्रिटिश सेना ने खत्म कर दिया। 

धुर्वाराव को फांसी 

बस्तर के चिंतलनार में 03 मार्च, 1856 ई. में अंग्रेजी सैनिकों और धुर्वाराव के सैनिकों के बीच संघर्ष हुआ। धुर्वाराव तालुकदार थे। इस विद्रोह में 05 मार्च 1856 ई. में उन्हें अंग्रेजों ने फांसी दे दी। धुर्वाराव को फांसी देने के बाद अंग्रेजों ने उनके तालुका को भोपालपट्टनम के जमीदार के हवाले कर दिया, क्योंकि इस जमीदार के अंग्रेजों से मिलने के कारण ही धुर्वाराव को युद्ध में हार का सामना करना पड़ा था। जनजातीय इलाके में 1859 ई. में अंग्रेजी हुकुमत ने दक्षिण बस्तर क्षेत्र में जंगलों को काटने का ठेका हैदराबाद के एक व्यापारी को दे दिया था। 

जंगलों को काटने का प्रयास

जब ब्रिटिश ठेकेदार बस्तर पहुंचा और जंगलों को काटने का प्रयास करने लगा, तब बस्तर के जमीदारों ने इसका सामूहिक रूप से विरोध किया। ठेकेदार हरिदास भगवान दास के खिलाफ जनजातीय जमीदारों ने साल वृक्षों से चिपककर पेड़ बचाने का अभियान चलाया। इस विरोध का नेतृत्व जुग्गा, जुम्मा, राजू, दोरा और पामभोई आदि योद्धाओं ने किया। उन्होंने एक नारा ‘‘एक साल वृक्ष के पीछे एक व्यक्ति का सिर‘‘ दिया। इस संघर्ष के कारण अंग्रेजी ठेकेदार को वहां से भागने के लिए विवश होना पड़ा। 

 मुंशी को पद छोड़ने के लिए किया विवश 

सन् 1876 ई. में ही बस्तर इलाके में अंग्रेजों के दमनकारी नीति के विरोध में मुरिया विद्रोह हुआ। यह दीवान गोपीनाथ और मुुंशी आदिल प्रसाद के खिलाफ किया गया। मुरिया आदिवासी बस्तर के राजा भैरमदेव को दिल्ली जाने से मना कर रहे थे। उन्होंने मरेंगा गांव में राजा का घेराव कर दिया, जिससे वे दिल्ली जाकर प्रिंस ऑफ वेल्स के सम्मान कार्यक्रम में शामिल न हो सके। मगर इस बीच राजा के मुंशी ने आदिवासियों पर गोली चलवा दी और कई आदिवासी मारे गए और कुछ गिरफ्तार कर लिए गए। मुरिया विद्रोह का नेतृत्व झाडा सिरहा ने किया। 02 मार्च, 1876 को विद्रोह तेज कर दिया गया और दीवान गोपीनाथ और मुंशी को पद छोड़ने के लिए विवश किया गया। 

बैजनाथ का विरोध

एक अन्य विद्रोह 1878 ई. में रानी चेरीस ने अपने पति भैरमदेव के गलत कार्यों को रोकने के लिए किया। इसके पीछे भी अंग्रेजी हुकुमत का षड़यंत्र था। इन सब आंदोलनों के साथ ही 1910 ई. में भूमकाल आंदोलन हुआ। भूमकाल अर्थात् भूमि का कंपन। 1910 में बस्तर में हुआ यह आंदोलन काफी बड़ा था। इस आंदोलन के नायक गुण्डाधूर थे। भूमकाल आंदोलन के कारण तत्कालीन राजा रूद्र प्रताप देव के चाचा कालेंन्द्र सिंह को दीवान पद से हटाकर पंडा बैजनाथ को बस्तर का प्रशासन सौंपा गया। बैजनाथ का विरोध आदिवासी कर रहे थे। उन्होंने जल, जंगल और जमीन के लिए शोषक वर्ग के खिलाफ जंग छोड़ दी।

10 फरवरी को मनाया जाता है भूमकाल दिवस 

1910 में हजारों की संख्या में लोग इंद्रावती नदी के तट पर एकत्रित हुए और नेतानार गांव के रहने वाले गुण्डाधूर को विद्रोह का नेता चुना। अंग्रेजों से वे संषर्घ में हजारों आदिवासियों ने इस युद्ध में भाग लिया और अनेक लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। इस विद्रोह में मूरत सिंह बख्शी, बाला प्रसाद नाजिर, वीर सिंह बंदार और लाल कालिन्द्री सिंह के साथ विद्रोह किया गया, जिसमें विद्रोही मिर्ची और आम की डाली का उपयोग लोगों को संदेश देने के लिए करते थे। गुण्डाधूर ने अपने साथियों के साथ्ज्ञ ग्राम अलनार में अंग्रेजों से मुकाबला किया। मगर बाद में वे अंग्रेजों से घिर गए। उनकी याद में हर साल 10 फरवरी को भूमकाल दिवस मनाया जाता है। 

व्यापारी माखन का तोड़वा दिया था गोदाम 

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में छत्तीसगढ़ के जनजातीय शहीदों में वीरनारायण सिंह का नाम सर्वाधिक प्रेरणास्पद है। उनका जन्म 1795 में सोनाखान के जमीदार परिवार में हुआ था। इनके पिता रामसाय अंग्रेजों के खिलाफ संषर्घ में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। बिंझवार आदिवासी समुदाय के रामसाय के दबदबा समाज में काफी था। पिता की मृत्यु के बाद 1830 में वीरानारायण सिंह जमीदार बने। वे परोपकारी, न्यायप्रिय और कर्मठ थे। 1854 में जब अंग्रेजी ने किसानों से कर वसूली में वृद्धि की, तो वीरनारायण सिंह ने उनका विरोध किया। 1856 में जब छत्तीसगढ़ में लोग सूखे के कारण दाने-दाने तरसने लगे तब उन्होंने कसडोल के व्यापारी माखन का गोदाम तोड़वा दिया और वहां से अन्न लोगों को बांट दिया। 

वीरनारायण सिंह राज्य सम्मान स्थापित 

व्यापारी की शिकायत पर अंग्रेज अधिकारी इलियट ने उनके खिलाफ वारंट जारी कर दिया। 24 अक्टूबर 1856 को उन्हें संबलपुर से गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें जेल में डाल दिया। 28 अगस्त, 1857 को वे अपने तीन साथियों के साथ जेल से छूटकर सोनाखान पहुंचे और 500 बंदूकधारियों की सेना बनाकर अंग्रेजो के खिलाफ संषर्घ किया। उन्हें कैदकर मुकदमा चलाया गया और 10 दिसंबर, 1857 को उन्हें रायपुर स्थित जयस्तंभ चौक में फांसी दे दी गई। इस आदिवासी योद्धा की स्मृति में राज्य सरकार ने वीरनारायण सिंह राज्य सम्मान स्थापित किया है और अंतर्राष्ट्रीय स्टेडियम भी उनके नाम पर है। 

आजादी के अमृत महोत्सव 

इन योद्धओं के अलावा भी जनजातीय क्षेत्रों में अनेक ऐसे योद्धा हुए हैं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में संघर्ष कर प्राणों की आहुति दी। आजादी के 75 साल के उपलक्ष्य में मनाए जा रहे आजादी के अमृत महोत्सव के तहत इन्हीं वीरसपूतों को स्मरण कर उनके कार्यों को याद करना और युवा पीढ़ी को उनके बलिदान से अवगत कराना जरूरी है। 

  (वरिष्‍ठ पत्रकार शगुफ्ता शिरीन रायपुर की कलम से। ये लेखक के अपने विचार हैं)

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