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आरंग में भी है शिव के अवतार लकुलीश की प्राचीन प्रतिमा, इन दुर्लभ प्रतिमाओं के संरक्षण की है आवश्यकता

आरंग। धार्मिक और शिवालयों की प्राचीन नगरी के नाम से सुविख्यात नगर आरंग कई रहस्यों को अपने गर्भ में लिए हुए हैं। यहां जगह - जगह पुरातात्त्विक अवशेष देखे जा सकते हैं। जिनमें से एक है नगर भगवान लकुलीश की दुर्लभ प्रतिमा। आरंग नगर के रानीसागर तालाब किनारे त्रिलोकी महादेव मंदिर परिसर में स्थित है यह प्राचीन पाषाण प्रतिमा।

पुरातत्त्व विशेषज्ञ के अनुसार यह प्रतिमा एक प्रस्तर पट्ट पर बनी हुई है। जो सम्भवतः शिव मंदिर का भाग रहा होगा। प्रतिमा को पद्मासन मुद्रा में बैठे हुए तथा दोनों पार्श्वों में क्रमशः साधु, गंधर्व तथा नाग दम्पत्ति को दर्शाया गया है। भगवान लकुलीश के हाथों में लकुट का होना और लिंग का नाभी की ओर उर्ध्व दर्शाया जाना  इस प्रतिमा की विशिष्टता है।

ऐसे पड़ा लकुलीश नाम

पुराविद् एवं प्राचीन कला विधा की प्रांत सहसंयोजक डॉ. शुभ्रा रजक तिवारी बताती हैं कि  प्राचीन भारतीय साहित्य एवं अभिलेखों के माध्यम से पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक का नाम लकुलीन या लकुलीश नामक आचार्य ज्ञात होता है। अभिलेखों के आधार पर लकुलीश के आविर्भाव की तिथि तथा स्थान दूसरी शताब्दी ईस्वी में बड़ौदा के धबोई जिले के कायावरोहण में (वर्तमान में कारवण) निश्चित किया गया है।

इस स्वरूप के कुछ प्रमुख उदाहरण भुवनेश्वर, एलिफैण्टा, एलोरा, पट्टडकल (विरूपाक्ष मन्दिर), बादामी, अयहोल, ग्वालियर (तेली का मन्दिर), हिंगलाजगढ़ जैसे स्थलों से प्राप्त हुए हैं। लकुलीश की मध्यकालीन चतुर्भुज मूर्तियों में दो हाथ सामान्यतः धर्मचक्रप्रवर्तन मुद्रा में तथा शेष दो हाथ अक्षमाला और त्रिशूल से युक्त होते हैं। लकुलीश की प्रतिमाएं प्रायः द्विभुजी होती है। उनके दांए हाथ में बिजोरा नामक फल होता है तथा बाएं हाथ में उनका विशिष्ट आयुध लकुट (दण्ड) होता है। जिसके कारण ही लकुलीश या लकुटीश नाम पड़ा है। लकुलीश  को पद्मपीठ पर प‌द्मासन में विराजमान दिखाया जाता है। लकुलीश मूर्तियों में सामान्यतः ऊर्ध्वलिंग होते है। लकुलीश की मूर्ति के सिर पर जैन मूर्तियों के समान केश होते है। मूर्तियों में नीचे नंदी या कहीं-कहीं पर दोनों ओर जटाधारी साधु का अंकन होता है।

छत्तीसगढ़ में इन स्थानों पर मिली है ऐसी प्रतिमाएं

छत्तीसगढ़ के अनेक पुरास्थलों से भी लकुलीश की प्रतिमाएं प्राप्त हुई है। महासमुन्द जिले के प्रख्यात पुरा नगरी सिरपुर के गंधेश्वर मंदिर परिसर में लकुलीश की अष्टभुजी और नृत्यरतमुद्रा में एक प्रतिमा स्थित है। इसी तरह दुर्ग जिले के शिव मंदिर सरदा में द्वारशाखा के शिरदल पर लकुलीश की प्रतिमा अंकित है। विद्वानों ने इसे सातवी - आठवीं शताब्दी ईसवी का माना है। इस काल की एक और लकुलीश की प्रतिमा शिव मंदिर बेलसर से प्राप्त हुई है। इस प्रतिमा का निर्माण चैत्याकार गवाक्ष में हुआ है। यह प्रतिमा द्विभुजी है। 

लकुलीश के शिल्पांकन में घुंघराले केश, उष्णीश, अर्ध उन्मीलित नेत्र, धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा में हाथों के मध्य लकुट का अंकन हुआ है साथ ही इस प्रतिमा में लकुलीश के चार प्रधान शिष्य कुशिक, मित्र, कौरुषेय और गर्ग का अंकन हुआ है। भोरमदेव मंदिर के जंघा भाग में दक्षिण दिशा के मध्यरत में भी लकुलीश की प्रतिमा अंकित है। भैरमगढ़ से भी लकुलीश की एक द्विभुजी स्थानक प्रतिमा प्राप्त हुई है जो देखने में अत्यंत आकर्षक है। लकुलीश की मूर्तियों का निर्माण गुप्तकाल में प्रारम्भ हुआ। मध्यकाल में लकुलीश की स्वतंत्र मूर्तियाँ मुख्यतः पश्चिमी और पूर्वी भारत में बड़ी संख्या में बनीं।

स्वयंसेवी संगठन पीपला वेलफेयर फाउंडेशन के संयोजक महेन्द्र कुमार पटेल ने बताया कि फाउंडेशन लगातार आरंग के प्राचीन इतिहास और दुर्लभ प्रतिमाओं की जानकारी पुराविदों के माध्यम से प्राप्त कर रहे हैं।तथा इन प्रतिमाओं के संरक्षण की दिशा में लगातार कार्य कर रहे  हैं। इन्हें सहेजने के लिए आरंग में एक संग्रहालय का निर्माण किया जाना भी प्रस्तावित है। आरंग के समृद्ध इतिहास को जन- जन तक पहुंचाने की दिशा में पीपला वेलफेयर फाउंडेशन द्वारा किए जा रहे प्रयासों की सर्वत्र सराहना की जा रही है।

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