सतयुग की बात है। भगवान शंकर माता उमा सहित कैलाश पर्वत में निवास करते थे। माता उमा की सखियां उनका उपहास उड़ाया करती थी कि इतने बड़े देव की पत्नी और रहने के लिए घर नहीं है जो तुम्हारी निजता के लिए अति आवश्यक है । माता उमा अपनी सखियों से हुई सारी बातों को शंकर जी को बतायी तो शंकर ने विशाल महल बनवा दिया।
एक दिन की बात है, माता उमा स्नान के लिए जाना चाहती थी लेकिन द्वार पर रक्षक नहीं था तब उन्होंने तरकीब लगाई और अपनी शक्ति से एक शक्तिशाली बालक को उत्पन्न कर दक्षिणी द्वार पर रक्षा के लिए तैनात कर दिया । अब माता उमा निश्चिंत होकर स्नान करने लगी । वह शक्तिशाली बालक द्वार पर पहरा दे रहा था तभी शंकर जी का आगमन हुआ । शंकर जी महल की ओर प्रवेश करना चाहता है । लेकिन शंकर जी से अपरिचित वह बालक उनको रोकता है । दोनों में वाकयुद्ध होता है और धीरे-धीरे यह युद्ध शस्त्र युद्ध में बदल जाता है । परिणाम यह होता है कि शंकर जी क्रोधित होकर उनका सिर काट देते हैं । चारो ओर हाहाकार मच जाता है।
प्रकृति के इस संकेत को पाकर माता उमा महल से बाहर आती है तो देखती है कि उनकी शक्ति से सृजित बालक का गला कटा हुआ है । माता उमा क्रोधित होकर पूछती है कि ये सब किसने किया तब शंकर जी ने सारी बातें बतायी । माता उमा दुखी हुई और शंकर जी के समक्ष बालक को पुनर्जीवित करने का प्रस्ताव रखा । शंकर जी ने विधाता ब्रह्मा जी से राय ली तब उन्होंने बताया कि इस खंडित सिर के साथ इस बालक को जीवित नहीं किया जा सकता, आपको इसके लिए उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करने पर प्रथम जीव जो भी मिलेगा उसका सिर इस धड़ पर स्थापित करना होगा तभी यह जीवित हो पाएगा । भगवान शंकर जी उत्तर की ओर आगे बढ़े। इधर एक वैश्य अपने हाथी के साथ व्यापार करके लौट रहा था जो वृक्ष की छाया पाकर विश्राम करने लगा । शंकर जी की दृष्टि उस हाथी पर पड़ी तो शंकर जी प्रसन्न होकर उस हाथी के पास गए और उनका सिर काट कर उस बालक के धड़ पर स्थापित करने के लिए ले गए । बालक के धड़ पर हाथी का सिर स्थापित करते ही बालक जीवित हो गया । माता उमा प्रसन्न हुई और बालक का नाम गजानन रखा ।
किन्तु हाथी के मालिक वैश्य जो विश्राम के समय गहरी निंद्रा में चले गए थे वो उठे तो हतप्रभ रह गए । वह जोर-जोर से विलाप करने लगा, आर्त व करुण भाव से अपना सब कुछ लुटने पर करुणानिधि भगवान को पुकारने लगा । शंकर जी विलाप सुनकर वैश्य के सम्मुख सपरिवार उपस्थित हुए और उन्हें ढाँढस बंधाने लगे । वैश्य ने अपने प्रिय हाथी को अपने व परिजनों के जीवन यापन का जरिया बताते हुए जीवन-यापन के संकट की बात कही । तब शंकर जी वैश्य को शांत कराते हुए उन्हें ओखल और मूसल नुमा एक यंत्र जिसे घानी कहते हैं, प्रदान किया और कहा कि हे वैश्य आज से यह यंत्र और इसे संचालित करने की कुशलता का वरदान तुम्हें देता हूँ ।तुम इस कार्य में मेरे सारे सहयोगियों से चुनाव कर कार्य में सहयोग भी ले सकते हो।
महादेव शिव ने अपने अति प्रिय भक्त वैश्य के तेल पदार्थ के निष्पादन में सहयोग हेतु अपने अनुचर नंदी (वृषभ) को नियुक्त ही कर दिया! भगवान शिव जी ने कहा इसके द्वारा तुम और तुम्हारी कई पीढ़ियां जीविकोपार्जन के साथ-साथ विपूल धन-धान्य प्राप्त कर श्री यश वैभव को प्राप्त करेंगे। और जब-जब मेरे सुपुत्र गजानन का जन्मोत्सव मनाया जाएगा तुम्हें भी यह पावन तिथि स्मरण होते रहेगा । भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को वह वैश्य व्यक्ति तेल निकालने के एक नये कर्म के साथ इस सृष्टि पर स्थापित हुआ जो आगे चलकर तैलिक वंशी कहलाया।
भगवान शिव के कृपा प्रसाद प्राप्त कर वह भक्त वैश्य शोक मुक्त हो गया । तैलिक वंशी वैश्य इस कृपा के लिए शंकर जी को पितृ पुरुष स्वीकार करके उनकी पूजा करने लगा तथा तेल निकालने का कर्म करते हुए धर्ममय जीवन-यापन करने लगा। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि इस पौराणिक घटना के लिए विख्यात है।
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विरेन्द्र कुमार साहू |
आलेख :
विरेन्द्र कुमार साहू
ग्राम - बोड़राबांधा (पाण्डुका)
जिला - गरियाबंद (छत्तीसगढ़)
मो. 9993690899