सत्ता के लिए ओबीसी परिवारों ने कभी दूसरे के उपनाम को स्वीकार नहीं किया, यहां तो टिप्पणीकार परिवार के लोग सत्ता स्वार्थपूर्ति के लिए गांधी सरनेम का उपयोग कर रहे।
आरक्षण के लिए भारत सरकार ने जो मापदंड निर्धारित किए हैं, उस मापदंड की कंडिकाओं में तेली और दूसरी पिछड़ी जाति के लोगों का रहन-सहन शामिल है। इसलिए उन्हें ओबीसी में शामिल किया गया है। साहू का कहना है कि स्वार्थपूर्ति के लिए जो लोग खान से गांधी बन जाते हैं, ऐसे परिवार के लोगों को किसी की जाति या धर्म पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं बनता। ओबीसी समाज के परिवारों में विवाह के बाद बेटियां अपने पति का सरनेम ही प्रयोग में लातीं हैं, न कि मायके का।
ओबीसी आरक्षण पर विस्तार से चर्चा करते हुए सांसद चुन्नीलाल साहू ने बताया कि स्वतंत्र भारत में पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए 1954 में काका कालेलकर आयोग का गठन किया, जिसकी अनुशंसा कभी लागू नहीं हुई। वर्ष 1979 में जनता पार्टी की सरकार में मंडल आयोग बना, तब ओबीसी जातियों को राष्ट्रीय स्तर पर सूचीबद्ध किया गया, लेकिन 1991 तक मंडल आयोग की अनुशंसा को लागू करने की दिशा में कांग्रेस ने रुचि ही नहीं दिखाई, सिर्फ और सिर्फ वोट की राजनीति करने के लिए इसे लालीपॉप ही बनाकर रखा।