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Charcha Chaurahe Par : ये कत्ल की रात क्या है, दिया वाली दीवाली, चुनाव लड़ने का शौक हो गया पूरा,ऑब्जर्वर हैं कि दामाद

चर्चा चौराहे पर-05

# ये कत्ल की रात क्या है ?


चौराहे पर चर्चा चल रही थी। कत्ल की रात आने वाली है। पुलिस विभाग में नए-नए भर्ती हुए एक सिपाही ने यह बात सुन ली। उसने टीआई को बताया। टीआई ने कप्तान को सूचना दी। कप्तान ने पुलिस के मुखबिरों को काम पर लगवाया। सायबर सेल को अलर्ट किया गया। खुफिया तंत्र भी सक्रिय हो गया। 

चहुँओर एक ही चर्चा- "किसी की कत्ल होने वाली है। जरा अलर्ट रहें, चुनाव का समय है। कानून व्यवस्था बिगड़नी नहीं चाहिए।" गुपचुप तरीके से खूब छानबीन हुई। अंत में कत्ल की रात का राज नहीं खुला। सब तरफ चुनावी शोरगुल के बाद किसी तूफान के पहले की खौफनाक शान्ति थी। तभी धुर नक्सल प्रभावित छत्तीसगढ़ के एक जिले के कप्तान ने समीक्षा बैठक ली। बैठक में युवा टीआई से कप्तान पूछ बैठे- ये कत्ल की रात क्या है? तुम्हे पता है। गैर अनुभवी टीआई ने मुंडी हिलाई। कहा-"राज का पर्दाफाश नहीं हो पा रहा है श्रीमान।" अनुभवी अफसरों के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई। कप्तान भी थोड़ा निश्चिंत हो गए। कप्तान को समझ में आ गया था कि ये कत्ल की रात का राज क्या है। पहले चरण के चुनाव के दौरान घटित इस वाक्या के बाद लोगों को दूसरे चरण के मतदान के पहले आने वाले 'कत्ल की रात' का बेसब्री से इंतजार है।

# दिया वाली दीवाली और दीया वाली दीपावली


दीगर प्रान्त से छत्तीसगढ़ आकर आजीविका चला रहे एक सख्श ने दीपावली की क्या खूब व्याख्या की है। बात-बात पर 'हमारा क्या ?' कहने वाले ये लोग चुनावी साल में बड़े खुश हैं। दिया वाली दीवाली जो मना रहे हैं। अर्थात दूसरों के दिए उपहार से दीवाली मना रहे हैं। चौराहे पर इसकी चर्चा चली। कहा- "का हो बबुआ ! कैसी रही दीवाली ?" बिरादरी के दूसरे बंदे ने जवाब दिया- " बस भैया, दिया वाली दीवाली रही (दिए गए उपहार पर ही दीवाली मनी)" । इस पर स्वाभिमानी छत्तीसगढ़िया ने तपाक से जवाब दिया- " तो किसकी दीवाली बिना दीया के होती है।" परदेशिया बाबू ने जवाब दिया- "दिया वाली दीवाली (दूसरों के दिए उपहार पर दीवाली मनाना) और दीया वाली दीपावली (दीप मालाओं को सजाकर दीवाली मनाने) में अंतर नहीं न है?" भोला छत्तीसगढ़िया अभी तक नहीं समझ पा रहे हैं कि यह बुड़बक क्या बक रहा है। 

# चुनाव लड़ने का शौक हो गया पूरा


चुनाव लड़ना दिन-ब-दिन खर्चीला होते जा रहा है। एक युवा नेता को भी विधायक बनने का खुमार चढ़ा। पुरखों की खून-पसीने की कमाई पूंजी और खेती की जमीन बेचकर चुनाव मैदान में उतरे। लोगों ने खूब चने के झाड़ पर चढ़ाया। हर किसी ने 'जीत रहे हो-जीत रहे हो' का रट्टा लगाया। जोश-जोश में लाखों रुपये फूंक दिए। अब पैरों तले जमीन खिसकने की बारी आ गयी है। युवा नेता के परिजनों को समझ में आ गया है कि चुनाव जीतने की स्थिति बिल्कुल भी नहीं है। तब चौराहे पर चर्चा छेड़ रहे हैं- "मुन्ना को चुनाव लड़ने का बड़ा शौक था। उसके शौक को पूरा करने ही चुनाव मैदान में उतरे हैं। हमें भी मालूम है जितना इतना आसान नहीं है। चुनाव लड़ने का शौक तो पूरा हो ही गया।"  इन्हें भी समझ में आ गया है कि राजनीति का नशा ऐसा है कि- 

कबीरा खड़ा बाजार में, 
          लिए लुकाठी हाथ ।
जो घर फूंके आपनौ, 
           चले हमारे साथ।। 

#  ऑब्जर्वर हैं कि दामाद !


छत्तीसगढ़ में निर्वाचन संपन्न कराने आए कतिपय आब्जर्वर से सरकारी अमला त्रस्त हो गए हैं। निर्वाचन आयोग से शिकायत करने की बात-बात पर चेतावनी देकर अफसरों को त्रस्त कर रखा है। ऑब्जर्वर की सेवा में तैनात द्वितीय और तृतीय श्रेणी के अधिकारी-कर्मचारी अब कहने लगे हैं कि- "ये ऑब्जर्वर हैं कि दामाद। इनकी सारी नखरे उठाने की विवशता है।" कहा जाता है कि निर्वाचन के दौरान ये ऑब्जर्वर इतने प्रभावशाली होते हैं कि इनकी मनगढ़ंत और मिथ्या रिपोर्ट पर भी त्वरित एक्शन होता है। जांच बाद में होती रहेगी, सबसे पहले अफसर हटा दिए जाते हैं। कैरियर पर दाग अलग लगता है। इसके चलते विभिन्न जिलों के जिला निर्वाचन अधिकारी से लेकर समूचा प्रशासनिक अमला इन्हें 'खुदा की तरह' मानकर खिदमत करने में जुटे हैं। बावजूद, कुछ ऑब्जर्वर की अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं होने से गाहे-बगाहे डांट फटकार सहन करने की मजबूरी है। इससे परेशान कर्मी कह रहे हैं- "ये कब जाएंगे? कब मतदान हो और उन्हें मुक्ति मिले। जीना हराम कर रखा है, इन सरकारी दामादों ने।"

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