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राजिम भक्तिन जयंती 7 जनवरी पर विशेष आलेख,छत्तीसगढ़ का प्रयाग 'राजिम', जानें कैसे पड़ा यह नाम

घनाराम साहू

राजिम छत्तीसगढ़ का प्राचीन संस्कृति संगम स्थल है। यह किसी परिचय का मोहताज नहीं है। छत्तीसगढ़ का प्रयाग के नाम से यह विख्यात है। पुरातात्विक उत्खनन में सिंधु सभ्यता से 12 वीं सदी तक 4 सभ्यताओं के अवशेष यहां मिले हैं। पौराणिक कथाओं और जनश्रुतियों के अनुसार इस स्थान का नाम क्रमशः सतयुग में पद्म क्षेत्र, त्रेता में राजीवपुर  अथवा राजीवनयन, द्वापर में पद्मावतीपुरी और कलयुग (आधुनिक काल) में कमलक्षेत्र, जगपालपुर और कालांतर में राजिम पड़ा। कुछ विद्वान राजिम के साथ जुड़े विशेषण 'श्रीसंगम' को तीन नदियों क्रमशः पैरी (प्रेतोद्धारिणी),  सोंढुर (सुन्दराभूति) एवं उत्पलेश के संगम की व्याख्या करते हैं। लेकिन मेरी दृष्टि में श्रीसंगम की व्याख्या श्रीकंठ (शिव), श्रीवत्स (विष्णु), बौद्ध, जैन, शाक्त मतों की उपस्थिति से सार्थक होती है।

राजिम का सीधा संबंध ओडिशा के पुरी के जगन्नाथ मंदिर से रहा है। इन दोनों तीर्थों के बीच सांस्कृतिक तत्वों का आदान-प्रदान होते रहा है। विद्वानों के मतानुसार जब पुरी अशान्ति के दौर से गुजर रहा था, तब राजिम को चौथे धाम की मान्यता रही है। 18 वीं सदी में पुरी में शांति स्थापना उपरांत राजिम के सर्वसमाज की सामूहिक भोज की गौरवशाली परंपरा पुरी स्थानांतरित हुई थी।

तेली जाति का उदभव और राजिम से संबंध

उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार 'तेली' जाति का उद्भव पांचवीं सदी में हुआ। तैलिक शब्द का प्रथम उपयोग इंदौर अभिलेख में सन 465 ई. में हुआ है। इस अभिलेख के अनुसार गुप्तवंश के राजत्वकाल में 8 वें राजा स्कन्दगुप्त के राज्य में इंद्रपुर ( इंदौर ) के सूर्य मंदिर में दीप प्रज्ज्वलन का दायित्व जयंता प्रवर तैलिक श्रेणिक को सौंपा गया था। इसी तरह नालंदा विश्व विद्यालय के प्रवेशद्वार और तेलिया भंडार के निर्माता बालादित्य को तेलाधक वंश का कहा गया है । कुछ अपवाद स्वरूप सातवाहन राजाओं के काल में शिल्पियों के गिल्ड (व्यापारिक संगठन) होने को अनदेखी करें तो इस कालखंड के पूर्व के साहित्यों में वैश्य वर्ण का उपयोग हुआ है, जिनका मुख्य कार्य कृषि, पशुपालन और वाणिज्य था। इस वर्ण में सभी शिल्पी जातियां शामिल रही हैं। वैश्य वर्ण के अनंतर इन जातियों को क्षत्रिय भी माना गया है । क्योंकि प्राचीन काल में क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र से ब्राह्मण बनने के उदाहरण बिरले हैं। लेकिन वैश्य से क्षत्रिय तथा क्षत्रिय से वैश्य बनने के उदाहरण बहुतायत में हैं अर्थात वर्ण परिवर्तनीय रहा है । महान गुप्त राजवंश भी मूलतः वैश्य वर्ण के ही थे । इसलिए प्राचीन वैश्य को तेली होने का दावा करना तार्किक रूप से गलत नहीं है। यदि वह खाद्य तेल, सुगंधित द्रव्य (इत्र) खली या नमक का व्यवसायी रहा हो। तेली जाति का राजिम से गहरा नाता है।  यह राजिम भक्तिन माता की जीवनी पर केंद्रित है। 

राजिम का रहस्योद्घाटन

राजिम भक्तिन माता की कहानी में दो राजपुरुषों के नाम आते हैं। जनश्रुतियों और समाज में प्रचलित किवदंतियों के अनुसार राजा जगतपाल और इतिहासकारों के अनुसार कलचुरी सामंत जगपाल देव । सन 1990 के दशक में राजिम भक्तिन माता की जयंती कार्यक्रमों में स्व. श्री भुनेश्वर राम साहू, एवं स्व. प्रो. दीनदयाल साहू से संवाद के बाद लेखक का स्पष्ट मत बना कि दोनों राजपुरुष भिन्न-भिन्न हैं। तब से निरंतर नए तथ्यों की खोजबीन में लगे हैं । सन 1995 में चुनिंदे शिक्षा शास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और इतिहास के शोधार्थियों को संगठित कर ’’राजिम माता शोध एवं शिक्षण संस्थान’’ नामक संस्था का विधिवत पंजीयन कराया गया । इस संस्था के संस्थापक सचिव डॉ. सतधारी साहू के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में चयन और रायपुर से बाहर पदस्थापना हो जाने से संस्थान का शोध कार्य धीमी गति से चलता रहा है । विगत 25 वर्षों में राजिम से संबंधित साहित्यों का संकलन, अध्ययन और विश्लेषण निरंतर होता रहा। 

राजिम राज के राजा : 30 पीढ़ी की वाचिक वंशावली

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार हैहयवंशी राजा जगतपाल का संबंध राजिम से है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालिक महानिदेशक सर एलेग्जेंडर कनिंघम ने राजिम की यात्रा कर सन् 1881-82 में विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित किया था । उन्होंने एक अन्य रिपोर्ट में दक्षिण कोसल के हैहयवंशी राजाओं की 30 पीढ़ी की वाचिक परंपरा अनुसार वंशावली को क्रमबद्ध किया है। जिसमें राजा मयूरध्वज से प्रारंभ होकर 14 वें स्थान में राजा जगतपाल स्थापित हैं। 


मराठा राजा रघुजी के आदेश पर रतनपुर के प्रसिद्ध कवि बाबू रेवाराम पंडित ने ’’तवारीख श्री हैहयवंशी राजाओं की ’’ रचना की थी । बाबू रेवाराम ने रतनपुर के हैहयवंशी कलचुरी राजाओं की 53 पीढ़ियों को सूचीबद्ध किया है। उन्होंने इस सूची में राजा जगतपाल को 14वें क्रम में रखकर राजत्वकाल को कलिवर्ष 3522 संवत 427 से 478 निर्धारित किया है। इनकी सूची में हैहयवंशी राजाओं के नाम क्रमशः मयूरध्वज, ताम्रध्वज, चित्रध्वज, विश्वाध्वज, चंद्रध्वज, भषपाल, विक्रम सेन, भीमसेन, कुमार सेन, कर्णपाल, कुमारपाल, नरपाल, मोहनपाल, जगतपाल, देवपाल, भूरिपाल, भीमपाल, कामदेव, भाहमदेव, सुरदेव, पृथ्वीदेव, रामदेव, बेनुदेव, रत्नसेन, वीरसिंह, रतनसिंह, भूपालसिंह, कर्ण सिंह, भानुसिंह, नरसिंहदेव, भावसिंहदेव प्रतापसिंहदेव, जय सिंहदेव एवं धर्मसिंहदेव हैं। 

राजिम और दुर्ग का आपस में ऐसा है संबंध

बाबू रेवाराम ने राजा जगतपाल की दो रानियां सुधादेवी और दुर्गादेवी बताया है । दुर्गादेवी के नाम पर दुर्ग नगर बसाने और किला बनाने का भी उल्लेख हुआ है । यहां यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि तीसरी-चौथी शताब्दी में चक्रवर्ती सम्राट फिंगेश्वर के तत्कालीन जमींदार स्व. दलगंजन सिंह  ने पंडित चंद्रकांत पाठक काव्यतीर्थ से ’’श्रीमद्मजीवलोचनमहात्मय’’ का पुनर्लेखन करवाकर सन 1915 में प्रकाशित कराया था । इस ग्रंथ में हैहयवंशी राजाओं की वंशावली राजा मुकुंद से प्रारंभ होकर राजा जगतपाल तक 18 पीढ़ियों का वर्णन है । इस वंशावली के 18 राजाओं के नाम क्रमशः राजा मुकुंद, चित्ररथ, शूरसेन, विश्वभूषण, देवकर्मा, जय, उग्रहय, भानुदत्त, चंद्ररुचि, धर्मरथ, कर्ण कीर्तन, अर्जुन, मंगल पालक, विशुद्ध वर्मा, देवपाल, भूपाल, सुद्युम्न एवं जगतपाल है। इस विवरण में राजा जगतपाल को अंतिम राजा बताया गया है । 

मगध के गुप्तवंशी शासक थे तेली

मगध के गुप्तवंशी शासकों को तेली वंशी होने का दावा किया जाता है । तब दक्षिण कोसल भी गुप्तवंश का राज्य रहा होगा। लेखक का अभिमत है कि इतिहास लेखन की आधुनिक परंपरा में स्थान उन्हीं राजाओं को मिलता है, जिनका पुरातत्विक अवशेषों के साथ अभिलेख/शिला/ ताम्र अभिलेख मिले। अभी तक राजिम या प्राचीन कलचुरी राज्य क्षेत्र में 9 वीं शताब्दी के पूर्व का हैहयवंशी राजाओं का कोई अभिलेख नहीं मिला है। इतिहासकार चौथी  से आठवीं सदी को अंधकार काल कहते हैं। लेकिन वाचिक एवं शास्त्र परंपरा में राजिम में राजा जगतपाल की उपस्थिति सिद्ध है । उम्मीद कर सकते हैं कि भविष्य में इन राजाओं के भी साक्ष्य मिलेंगे। 

पद्मावतीपुरी की यह है कथा

पद्मावती पुरी नाम की स्थापना सती, भगवद परायण माता पद्मावती से ही है । सन 1915 में पं चंद्रकांत पाठक काव्यतीर्थ द्वारा संपादित  ' श्रीमद्रजीवलोचनमहात्मय ' में सती  तपस्विनी, भगवद परायण पद्मावती की कथा वर्णित है । कथा के अनुसार  गुर्जर देश के वासव्य नगर में विजयानंद वैश्य थे, जिनकी पत्नी का नाम पद्मावती था । पद्मावती सती भगवद भक्त विदुषी महिला थी। ग्रंथकार ने ' 'तस्य प्रिया सती शुद्धा भगवद सुस्थिता नाम्ना पद्मावती शील गुण रुपैक भूषणा' विशेषण लिखा है । राजीवनयन का महात्म्य सुनकर यह दंपति पुत्र-पुत्री एवं धन-संपत्ति सहित राजिम आ गए । यहां आकर इस दंपति ने भगवद भक्तों के लिए अनेक आवास स्थलों का निर्माण किया और जरूरतमंदों को संपत्ति दान किये । कुछ वर्षों तक परोपकार करते हुए भगवद भक्ति में समर्पित रहे । उनकी भक्ति से भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर कई शुभ संकेत दिए। जिससे यह दम्पति प्रसन्नचित रहने लगा । माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन प्रातः चित्रोत्पला स्नान कर यह दम्पति सपरिवार अन्य भक्तों सहित श्री हरि मंदिर के प्रांगण में पूजा के लिये पहुंचे । तब भगवान विष्णु अपने पार्षदों सहित प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा । दम्पति ने भगवान विष्णु से प्रार्थना कर परिवार के लिए बैकुंठ धाम मांग लिया । भगवान विष्णु ने प्रांगण में विमान बुलाया और वैश्य दंपति को पुत्र-पुत्री सहित बैकुंठ धाम ले गए । ग्रंथकार ने इस कथा को यहीं समाप्त कर दिया है।

पांचवीं सदी के पूर्व वैश्य

पांचवीं सदी के पूर्व वैश्य संज्ञा सभी उत्पादक, वाणिज्य प्रबंधक एवं शिल्पियों के लिए प्रयुक्त होती थी। जिसमें तैलिक प्रमुख भागीदार थे । ग्रंथकार ने हैहय राजाओं के लिए ’’धर्मसेतु’’ विशेषण का प्रयोग किया है । रिचर्ड जेंकिन्स के रिपोर्ट में ’’धर्मसेतु’’ की सुंदर व्याख्या भिन्न शब्दों में किया है। लेखक के मत अनुसार वैश्य दम्पति तेली जाति के ही थे और सती पद्मावती के पुण्य स्मरण में ही धर्मनगरी का नाम ’’पद्मावतीपुरी’’ रखा गया था। इस दम्पति और पुत्र-पुत्रियों की झलक राजिमलोचन मंदिर के गर्भगृह में स्थापित ’’बालाजी’’ की प्रतिमा में स्पष्ट देखी जा सकती है ।

राजिम का आधुनिक इतिहास

राजिम के आधुनिक इतिहास में जगपाल देव प्रमुख पात्र हैं। इतिहासकारों के अनुसार जगपाल देव रतनपुर के कलचुरी राजाओं के सामंत थे । पौराणिक राजा जगतपाल का ऐतिहासिक-पुरातात्विक साक्ष्य नही मिलने के कारण जगपाल देव को ही राजा जगतपाल मान लिया गया है। आधुनिक इतिहास के विवरण के अनुसार सामंत जगपाल देव का पूर्वज साहिल्ल था। त्रिपुरी के हैहयवंशी कलचुरी राजा गांगेयदेव के उत्कल विजय अभियान के दौरान दक्षिण कोसल के हैहयवंशी कलचुरी राजा कमलराज ने उन्हें सहायता की थी । इसी युद्ध में उसे ’’साहिल्ल’’ मिला था जो पराक्रमी योद्धा था । राजा कमलराज का राजत्व काल सन 1020 से 1045 बताया जाता है । 

राजा कमलराज के पूर्वज शंकरगण ने नलवंशी राजा विलासतुंग को पराजित कर राज्य को अपने अधीन कर लिया था, जिसमें वर्तमान राजिम भी शामिल था। विलासतुंग का शिलालेख राजिमलोचन मंदिर की भित्ति में जड़ा हुआ है, जिसके अनुसार उन्होंने नारायण मंदिर बनवाया था।

राजिम : नामकरण को लेकर मतांतर

लेखक के मतानुसार कलचुरी राजा कमलराज के कारण उसके अधीन के भू-भाग को ’’कमल क्षेत्र’’ कहा गया था । चूंकि वर्तमान राजिम तब पद्मावतीपुरी के नाम से प्रतिष्ठित था। उसमें कमल क्षेत्र भी जुड़ गया । साहिल्ल के वंशज जगपाल देव ने कलचुरी राजा पृथ्वी देव द्वितीय के लिये मयूरकों और सावंतों को पराजित कर कलचुरी राज्य में शामिल किया था । 

कलचुरी राजा रत्नदेव और उत्कल के चोडगंगवंशी राजा अनंत वर्मन के बीच शिवरीनारायण के निकट युद्ध हुआ था। जिसमें जगपाल देव ने अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया था । जगपाल देव का शरीर युद्ध में अस्त्र-शस्त्र के वार से सिंदूर के समान लाल हो गया था फिर भी उसने दुश्मन की सेना को पराजित कर दिया । इस पराक्रम से राजा ने जगपाल को जगतसिंह की उपाधि से विभूषित कर पद्मावतीपुरी क्षेत्र का सामंत बनाया था । जगपाल देव के तीन भाई गाजल, जयत सिंह और देवराज थे । अपने भाइयों के साथ जगपाल देव ने सारंगढ़, सिहावा, कांतार, बिन्द्रानवागढ़, कांकेर को जीत कर कलचुरी राज्य में शामिल किया था ।

राजिमलोचन मंदिर का शिलालेख

राजिमलोचन मंदिर की भित्ति में जड़े शिलालेख के अनुसार जगपाल देव ने ’’जगपालपुर’’ बसा कर रामचंद्र मंदिर का निर्माण कराया था । इस शिलालेख को उत्कीर्ण कराने की तिथि माघ शुक्ल रथ अष्टमी 3 जनवरी सन् 1145 है । इस शिलालेख में राजिम तेलिन माता का कोई उल्लेख नहीं है । इसमें जगपाल देव के वंश को पंचहंस एवं राजमाल गोत्र का बताया गया है । इतिहासकार साहिल्ल को बुंदेलखंड के मिर्जापुर क्षेत्र के बड़हर का होना मानते हैं ।

जनश्रुतियों के अनुसार सामंत जगपाल देव का महल कर्रा या खर्रा या रक्काह (रक्सा) में था । जगपाल देव का विवाह दुर्ग की राजकुमारी झंकावती से हुआ था और विवाह उपरांत दुर्ग में निवास करने लगा था ।


किवदंतियों के अनुसार जगपाल देव ने राजमालपुर बसाया था, जो कालांतर में अपभ्रंश होकर क्रमशः राजम और राजिम हो गया । इतिहासकारों का स्पष्ट मत है कि राजिमलोचन मंदिर प्राचीन है और जगपालदेव ने जो मंदिर बनवाया था वह राम-जानकी मंदिर है । उस मंदिर का शिलालेख राजिमलोचन मंदिर में कब और किसने लगाया ? यह प्रश्न अनुत्तरित है ।

पंडे पुजारियों की जुबानी, अंग्रेज अधिकारियों ने लिखी यह कहानी 

आधुनिक इतिहास में राजिम का सर्वप्रथम दस्तावेजीकरण ईस्ट-इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त छत्तीसगढ़ के अधीक्षक रिचर्ड जेंकिन्स ने सन 1825 में किया था । इनके बाद भारतीय पुरातत्व विभाग के डॉक्टर जे. डी. बेगलर ने राजिम के पुरातात्विक अवशेषों का अध्ययन कर  1873-74 में रिपोर्ट प्रकाशित की थी । सन 1881-82 में भारतीय पुरातत्विक सर्वेक्षण के महानिदेशक सर एलेग्जेंडर कनिंघम ने वाचिक इतिहास और पुरातत्व पर रिपोर्ट प्रकाशित की। इन तीनों अंग्रेज अधिकारियों को राजिम के पंडे-पुजारियों ने जो कहानी बताई, उसी का उन्होने दस्तावेजीकरण किया है। इस बीच 1860 में अंग्रेजों ने इम्पीरियल गजेेटियर ऑफ इंडिया का प्रथम प्रकाशन किया, जिसमें राजिम को पूरे एक पृष्ठ में स्थान मिला है । 


रिचर्ड जेंकिन्स ने लिखा है "  The image set up on this occasion is supposed to have been lost and after the lapse of ages, to have been recovered through supernatural means from a woman of the Teli caste, who had degraded in to the purpose of giving weight to an oil mill "

(अर्थात मंदिर की जो प्राचीन मूर्ति खो गई थी, वह एक तेल व्यापारी की पत्नी से अलौकिक ढंग से मिला था। जिसे उसने अपने तेल मिल (घानी) में भार के रूप में निम्न स्तरीय उपयोग करते थे।) 

सन 1860 के गजट में चार्ल्स ग्रांट ने लिखा है-

This doorway leads to two modern temples of Mahadev and a third behind them is dedicated to the wife of an oil-seller, respecting whom there is a popular story connected with the ancient image of Rajive Lochan, which makes her contemporary with Nagarpalika.” 

डॉ. जे. डी. बेगलर ने लिखा है 

“ Rajam is named after a Telin named Rajba; she used to worship Narayan regularly, and she did so for 12 years, Narayan coming to her daily all the time. At the end of 12 years, Narayan pleased, desired her to ask a boon; she replied” My lord, stay here always and let my name Rajib Lochan. " ( अर्थात् तेलिन माता का नाम राजीबा था और उसी के नाम पर भगवान के वरदान से नगर का नाम राजम और मंदिर का नाम राजीब लोचन हुआ।)

एलेग्जेंडर कनिंघम लिखते हैं 

When the Telin Rajiva surrenderd her black stone weight to the Raja Jagatpal on the agreement that tha temple should be named after her. According to one informant, the widow Raju or Rajib was an oil-dealer of Chanda. She possessed a black stone, which she used as a weight in selling her oil. Jagat pal had a dream about this stone, which made him wish to possess it, for the purpose of building a temple over it .He at first offered her its weight in gold, but she refused to part with it. At last she was induced to give it in exchange for the Queen’s gold nose-ring and promise that the temple should be named after her.”

 (अर्थात् इन्होंने तेलिन माता के लिए तीन नाम राजीवा, राजू या राजीबा लिखा है। जो चांदा की विधवा तेल व्यापारी थी । इसके पास काले रंग का पाषाण था जिसे राजा जगतपाल लेना चाहता था । तेलिन को पाषाण के बदले सोना देना प्रस्तावित किया, जिसे माता ने अस्वीकार कर दिया था । अंत में पाषाण के बदले रानी के नाक की नथ, बाली तथा मंदिर में तेलिन का नाम जोड़ने की शर्त पर देना स्वीकारती है।)

सन 1909 में प्रकाशित रायपुर जिला गजट में अंग्रेज अधिकारी नेल्सन लिखते हैं 

“ there was a woman named Rajiva Telin who used to go round selling oil from village to village.”  (अर्थात् 1909 के आते तक राजीव या राजीबा तेलिन तेल व्यापारी या व्यापारी की पत्नी से गांव-गांव घुमकर तेल बेचने वाली बना दी गई । लेकिन सभी कहानियों में तेलिन माता के पास काले रंग का पाषाण होना और उसका उपयोग घानी में भार के लिये या तौल में भार के लिए किया जाना उल्लेखित है । अभी तक के विवरण में स्पष्ट है कि 1825 से 1909 तक अर्थात 85 वर्ष में राजिम भक्तिन माता की कहानी में परिवर्तन होते रहा है ।)

पद्य ग्रंथ 'श्री राजीव क्षेत्र महात्म्य'

अब हम राजिम की कहानी के मुख्य पात्र राजिम भक्तिन माता की चर्चा करेंगे। यह प्रमाणित हो चुका है कि पंडे-पुजारियों ने अंग्रेज पुरातत्ववेत्ताओं को जो कहानी सुनाई थी, उसमें एकरूपता नहीं है । सन 1881-82 के बाद 1898 में राजिम के कवि समाज के पं. शिवराज ने देशी भाषा में पद्य ग्रंथ ’’ श्री राजीव क्षेत्र महात्म्य’’ की रचना की। जिसका संपादन पं सुंदरलाल शर्मा ने किया । इस ग्रंथ का प्रकाशन सन 1915 में हुआ था । 

ग्रंथ में तेलिन माता का नाम ’’राजिम’’ लिखा गया है-

  • तेलिन एक सुभक्ति करही ।
  • निस दिन ध्यान प्रभु के धरही ।। 
  • राजिम नाम जगत विख्याता । 
  • सुमरहि सदा स्वजन सुख दाता।। 

इन्होंने नगर का नाम राजीवपुर लिखा है और भक्तिन को राजा जगतपाल या जगपाल के समकालीन बताया है । भक्तिन को विग्रह मिलने के प्रसंग में लिखते हैं - 

  • राजिम महानदी नित न्हावै । 
  • प्रभु कर ध्यान धरै सुख पावै ।। 
  • श्यामल शिला रेत पर देखी । 
  • राजिम मद मुद भयउ विशेषी ।।
  •  तब तेलिन मन कीन्ह विचारा ।
  •  शिला उठाय धरावहीँ द्वारा ।। 
  • प्रभु हिलाय घानी मह राखी ।
  •  महिमा अगम अगोचर जानी ।।

इस कहानी के अनुसार राजिम तेलिन का परिवार समृद्ध तेल व्यापारी था । नदी स्नान के दौरान उसे एक चिकना काले रंग का पाषाण खंड मिला था, जिसे घानी में रखा गया । इस शिला खंड के आने के बाद राजिम का परिवार अधिक समृद्धशाली हो गया था । दुर्ग के राजा जगतपाल को स्वप्न में आदेश होता है कि वह राजिम तेलिन से पाषाण खंड को प्राप्त कर मंदिर का निर्माण करे । 


राजा जगतपाल या जगपाल ने राजिम तेलिन को प्रस्तावित किया कि पाषाण के भार के बराबर सोना लेकर विग्रह उन्हें सौंप दे। राजिम भक्तिन पाषाण खंड सौंपने तैयार नहीं होती है। लेकिन राजाज्ञा का पालन करने की विवशता में वह मंदिर में भगवान के साथ अपना नाम जोड़ने प्रस्ताव रखती हैं । राजा भक्तिन के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर विग्रह के भार के बराबर सोना देना निश्चय करता है । पाषाण खंड को तुला में रखकर उपलब्ध स्वर्ण आभूषण को चढ़ाया  जाता है। लेकिन तुला बराबर नहीं होता है । राजा दूसरे दिन अधिक सोना लेकर आने का निश्चय कर लौट जाता है। राजा पाषाण खंड के भार को लेकर विस्मित और चिंतित था । रात्रि में उसे पुनः स्वप्न में आदेश होता है कि तुला में सोना के साथ तुलसी का दल चढ़ाए । राजा दूसरे दिन सोना के साथ तुलसी दल चढ़ाता है, तब तुला झुक जाता है । इस प्रकार राजा का अहंकार भी नष्ट हो जाता है। इसी घटना को लेकर कुछ किवदंतियों में राजिम भक्तिन को लालची बताकर उनका सम्मान घटाने का प्रयास भी किया गया है । इसी प्रयास के प्रत्युत्तर में राजिम भक्तों द्वारा रानी के नाक की नथनी, बाली मांगने की कहानी प्रचलित की गई जो किसी राजा के लिए बेहद अपमानजनक है ।

माघ शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था जन्म

राजीवलोचन मंदिर ट्रस्ट द्वारा श्रद्धालुओं को देने के लिए  ’’राजिम दर्शन’’ नामक पुस्तिका प्रकाशित की गई है । इस पुस्तिका में राजिम तेलिन को गांव-गांव घुमकर तेल बेचने वाली बताया गया है। तेल बेचने की यात्रा के दौरान एक पत्थर की ठोकर से वह गिर जाती है और उसका तेल का पात्र लुढ़क जाता है ।  उठकर जब वह पात्र को देखती है तब तेल लबालब भरा हुआ मिलता है । वह दिनभर तेल बेचकर घर लौटती है तब भी तेल पात्र भरा ही रहता है । साधारण परिवार की परंपरानुसार उसकी सास और पति को उस पर संदेह होता है, तब वह वृतांत सुनाती है। दूसरे दिन पति और सास को उस स्थान पर ले जाती हैं और उनको दिखाती है । जिस पत्थर से उसे ठोकर लगी थी, उसके नीचे भगवान विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा निकलती है, जिसे लाकर अपने घर में स्थापित करते हैं । इसकी सूचना राजा जगतपाल को मिलती है । आगे पूर्व की वही कहानी दोहराई गई है कि राजा को स्वप्न आता है और मूर्ति का सौदा सोने से किया जाता है।  इस कहानी में राजिम भक्तिन को लालची होने का संकेत किया गया है, लेकिन यह स्वीकार किया गया है कि राजिम भक्तिन के नाम पर नगर तथा राजीवलोचन मंदिर का नाम 'राजिमलोचन' कहलाया ।


राजिम के समाजसेवी साहित्यकार स्व. भुनेश्वर राम साहू ने राजिम भक्तिन माता की जीवनी में उसे नगर श्रेष्ठी धरमदास और उसकी पत्नी शांति की इकलौती पुत्री लिखा है । माता का जन्म माघ शुक्ल पूर्णिमा के दिन हुआ था । राजिम का विवाह नगर के ही अन्य तैलिक व्यापारी रतनदास के पुत्र अमरदास के साथ हुआ था । राजिम बाल्यकाल से ही अलौकिक शक्तियों की स्वामिनी थी । इस कहानी के अनुसार राजिमलोचन मंदिर का निर्माण उन्होंने ही कराया था। 

और यह पवित्र धाम 'राजिम ' कहलाने लगा

पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर में इतिहास के प्रोफेसर डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर की पुस्तक  'राजिम' सन 1972 में मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी द्वारा प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में 136 पृष्ठों में राजिम के इतिहास एवं पुरातत्व का विषद विवेचना किया गया है । प्रो ठाकुर लिखते हैं-

"जनश्रुति से ज्ञात होता है कि राजिम नामक एक तेलिन के नाम पर इस स्थान का नाम पड़ा है। " उन्होंने आगे वही कथा दोहराई है जिसमें राजिम भक्तिन माता को गांव-गांव में घूमकर तेल बेचने वाली, पत्थर की ठोकर से गिर जाना, सास और पति की प्रताड़ना से भयभीत होना इत्यादि का उल्लेख मिलता है। सास और पति दोनों के मन में शंका जगी कि हो न हो, इसने तेल के बदले अपने सतीत्व का सौदा कर यह धन अर्जित किया है । जब पत्थर को खोदा गया तब साधारण पत्थर के बदले भगवान विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा निकली। ऐसा लिखने वाले वे प्रथम इतिहासकार हैं। प्रलोभनवश राजिम ने समभार स्वर्ण के बदले उसे देना स्वीकार कर लिया । परंतु जब वह मूर्ति तुला पर रखी गई तो उसे देखकर आश्चर्य हुआ कि मानुषाकार प्रस्तर मूर्ति का भार तृण मात्र भी नहीं रहा है । अतः उसने प्रलोभन त्याग दिया और राजा से यह वचन लेकर कि भगवान के आगे उसका नाम चलेगा, वह मूर्ति दे दी । उसी दिन से भगवान राजिम लोचन ( राजीवलोचन ) के नाम से पुकारे जाने लगे और इनका यह पवित्र धाम राजिम कहलाने लगा । अधिकांश विद्वान राजिम को राजीव का विकृत रूप मानते हैं । इस संदर्भ में वे  राजीवलोचन से भगवान विष्णु के एक विरुद का आशय स्वीकार करते हैं । इसी प्रमाणिकता के लिए यहां की प्रसिद्ध विष्णु प्रतिमा के प्रचलित नाम ( भगवान राजिमलोचन ) को साक्ष्य रूप में प्रस्तुत किया जाता है । अतः देव नाम पर स्थान नाम की उत्पत्ति एवं प्रसिद्धि पूर्ण संभावित प्रतीत होती है । लेखक ने स्थान और देव का नाम राजिम माता से ही होना स्वीकार किया है।


एक दूसरी अनुश्रुति में इसके पद्म क्षेत्र अंतर्गत पद्मावतीपुरी नाम का ज्ञान होता है। राजिम महात्म्य नामक संस्कृत ग्रंथ में इसे पद्म क्षेत्र कहा गया है । यह सर्वविदित है कि वर्तमान राजीवलोचन मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित प्रतिमा विष्णु की है, राम की नहीं ।

राजीवलोचन मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित विष्णु की प्रतिमा को ही जगपाल देव के शिलालेख में राम कहा गया हो, यह मानना असंगत होगा । इसमें संशय नहीं कि वर्तमान में राजीवलोचन के नाम से संबोधित की जाने वाली विष्णु प्रतिमा का समीकरण लोग राम के रूप में करते हैं, पर यह मात्र अज्ञानता का परिणाम है। 

वैभवशाली इतिहास को धूमिल करने का प्रयास

इन सभी वृतांतों से पता चलता है कि सन 1825 से 1972 के बीच अनेक कथा-कहानी बनाकर राजिम भक्तिन माता के वैभवशाली इतिहास को धूमिल करने का सतत प्रयास किया गया है। प्रो ठाकुर इतिहासकार थे साहित्यकार नहीं। इसलिए उन्हें जो साक्ष्य मिला उसे इतिहास का हिस्सा बना दिया । यह भी सत्य है कि इतिहासकार साक्ष्य को कमजोर या सुदृढ़ कर इतिहास को प्रभावित कर सकता है । प्रो. ठाकुर ने जिन तथ्यों की ओर इशारा किया है वह हमारे लिए भविष्य में होने वाले शोध के द्वार खोलता है। 

प्रो विष्णु सिंह ठाकुर के ’’ राजिम ’’ के प्रकाशन के बाद से साहू समाज के मंचों में उसी कहानी के सारांश का प्रचार होने लगा । कुछ वर्षों बाद कहानी के आपत्तिजनक अंशों को हटाया गया। सन 1990 के दशक में सतना निवासी श्री रामकिशोर साहू शिवरीनारायण-पामगढ़ क्षेत्र में एक राजनीतिक दल के प्रचारक के रूप में आये थे। उन्होंने राजिम भक्तिन माता की कहानी लिखी थी। उन्होंने राजिम भक्तिन माता को ’’ निर्गुणी संत ’’ के रूप में चित्रित और प्रतिष्ठित किया था । संत माता कर्मा आश्रम समिति ने राजिम जयंती का प्रथम आयोजन किया था, जिसमें लेखक भी उपस्थित थे । तभी से राजिम भक्तिन माता को ’’ संत राजिम माता ’’ कहा जाने लगा है । कहा जाता है कि श्री रामकिशोर वर्तमान में अमरकंटक के किसी आश्रम में निवासरत हैं ।

श्री राम किशोर साहू की कहानी आने उपरांत स्व. श्री भुनेष्वर राम साहू की रचना को संस्था ’’ राजिम माता शोध एवं शिक्षण संस्थान ’’ ने 1995 में प्रकाशित किया । हम संत-वाणी के अभाव में माता को राजिम भक्तिन माता कहे जाने के पक्षधर रहे हैं। लेकिन समाज के मंचों में बताई जाने वाली कहानी से असहमति रही है । वर्ष 2003 में  डॉ. वृषोत्तम साहू द्वारा ’’ राजीव भक्तिन माता का विश्लेषणात्मक ऐतिहासिक अनुशीलन ’’ नामक शोध पुस्तिका प्रकाशित हुआ । इन्होंने माता का नाम ’’ राजीव ’’ स्वीकार कर भगवान का नाम भी ’’ राजीवलोचन ’’ माना है । 

रामायण से जोड़ दी राजिम की कहानी

सन 1993 में भाटापारा के कवि श्री संतराम साहू कृत छत्तीसगढ़ी भाषा में ’’भगतिन राजिम माता’’  तथा 2011 में  ’’राजिम माता चालीसा’’ प्रकाशित किया गया है । सन 2003 में श्री पुनीत राम गुरुवंश द्वारा छत्तीसगढ़ी में ही  'तैलिक वंश का गौरव पूर्ण इतिहास' प्रकाशित हुआ। अभी तक राजिम से संबंधित  उपलब्ध प्रायः सभी साहित्यों पर चर्चा हो चुकी है । प्रथम अंग्रेज अधिकारी रिचर्ड जेंकिन्स को पंडों ने एक पौराणिक कथा सुनाया था, जिसका संक्षेप है- " त्रेता युग में श्रीराम चंद्र के राज्याभिषेक उपरांत अश्वमेध यज्ञ का श्यामकर्ण घोड़ा छोड़ा गया । घोड़े की रक्षा के लिए शत्रुघ्न को सेना सहित तैनात किया गया। घोड़ा विचरण करते हुये महानदी के तट पर राजा राजू लोचन के देश में आया । तब राजा ने घोड़े को पकड़कर नदी के तट पर स्थित कर्दम ऋषि के आश्रम में बांध दिया । घोड़े को ऋषि आश्रम में बंधा देख शत्रुघ्न ने आश्रम में आक्रमण कर दिया । आक्रमण से ऋषि का ध्यान टूटा और उसने शत्रुघ्न को सेना सहित भस्म कर दिया । शत्रुघ्न के भस्म होने की सूचना पर श्री राम आये और राजा राजू लोचन उनके शरणागत हुए । श्रीराम राजा से प्रसन्न हुए और कर्दम ऋषि को भी प्रसन्न किया । ऋषि ने शत्रुघ्न सहित उसकी सेना को पुनर्जीवित कर दिया । श्री राम लौटते समय राजा राजू लोचन को उनका एक मंदिर राजीवलोचन बनाने का आदेश देते हुए कहा कि भविष्य में वह मंदिर लोचन मंदिर के नाम से प्रतिष्ठित होगा । राजा ने नदी के तट पर श्री राम का मंदिर बनवाया जो राजीवलोचन मंदिर कहलाया ।’’ 


इस कहानी को इतिहासकार खारिज करते हैं क्योंकि राजिम से कुछ दूरी पर तुरतुरिया में वाल्मीकि आश्रम है जहां लव-कुश द्वारा अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़े जाने की जनश्रुति प्रचलित है । इतिहासकार तुरतुरिया में वाल्मीकि आश्रम का होना भी अस्वीकारते हुए घोड़ा पकड़े जाने की घटना को सतना के चित्रकूट में घटित होने के दावे को संगत मानते हैं।

पंडों ने रिचर्ड जेंकिन्स को बताया था कि बिन्द्रानवागढ़ के पंडित जुड़ावन सुकुल ने भविष्योत्तर पुराण का अनुवाद किया है । वर्तमान में इस पुराण की उपलब्धता नहीं है तथा पुराणिकों के अनुसार किसी भी भविष्य पुराण में राजिम महात्म्य वर्णित नहीं है।

पंडों ने एक और ग्रंथ कपिल संहिता के बारे में बताया था । कपिल संहिता के दूसरे अध्याय में 40 श्लोक हैं । चौथे श्लोक में ’’तत्र देशे द्विज श्रेष्ठात्न नदिनाममुत्तमा नदी । महानदीति विख्याता सर्वपापनोदिनी ।।’’ लिखा है । इसी तरह श्लोक  38, 39 एवं 40 में लिखा है - महानदी महापुण्या महादेवप्रिया शुभा । द्वितीयविग्रहं धृत्वा आस्ते गंगा तु मायया ।। उत्पलेशड्ड समासाद्य यावच्चित्रा माहेश्वरी । तावचित्रोत्पला ख्याता सर्वपुण्यप्रदा नदी ।। महानद्यां नरः स्नात्वा दृष्टवा वै पार्वतीहरम । सर्वपापविनिर्मुक्तो गंगास्नानफलं लभेत ।।’’ 

गंगा स्नान की तरह ही पाप नाशिनी

श्री संगम और महानदी की महिमा इस प्रकार श्रीकंठ (नीलकंठ) के धाम में श्रीवत्स का संगम हुआ । विद्वान सोंधुर (सुन्दराभूति), पैरी   (प्रेतोद्धारिणी) एवं उत्पलेश नदी के संगम को  श्रीसंगम  की संज्ञा देते हैं । लेखक के मतानुसार इसका वास्तविक भावार्थ श्रीकंठ और श्रीवत्स के संगम से है । तीन नदियों के संगम उपरांत नदी चित्रोत्पला कहलाती है । चित्रोत्पला की संज्ञा सोनपुर (ओडिशा) में इस नदी और उत्पलावती (तेलवाहा, उत्पलिनी, तेल नदी) के संगम में बने चित्रा देवी के प्राचीन मंदिर से है । इस संगम के पूर्व चित्रोत्पला शिवा (शिवनाथ) एवं पलासनी (जोंक) से संगम बनाती है । सोनपुर के संगम के बाद ही नदी महानदी कहलाती है । 


इस प्रकार चित्रोत्पला स्नान को गंगा स्नान की तरह परम पवित्र, पाप नाशिनी बताया गया है । एक अन्य संदर्भ में पैरी नदी को प्रेत कर्म के लिए श्रेष्ठ होने के कारण प्रेतोद्धारिणी नामकरण का उल्लेख मिलता है। इस वंश के राजाओं को धर्मसेतु कहा गया है । इसका भावार्थ यही है कि इस धर्मनगरी में शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन मत के उपासना गृहों की उपस्थिति आदिकाल से है और हैहय राजवंश सभी मतों का संरक्षण एवं समन्वय करते थे । फलतः उत्पलेश्वर महादेव (कुलेश्वर), राजिमलोचन तथा मंदिर प्रांगण में बुद्ध प्रतिमा के साथ-साथ शालभंजिका की कलाकृतियां, पार्श्वनाथ प्रतिमा तथा श्रीराम-जानकी मंदिर आज भी प्रतिष्ठित हैं।


सन 1825 से लेकर 1915 तक सभी लेखकों ने, जिनमें 4 अंग्रेज विद्वान और पंडित सुंदर लाल शर्मा  शामिल हैं, ने लिखा है कि राजिम भक्तिन माता को महानदी में  काला पाषाण  मिला था । जिसे माता ने अपनी घानी में रखा था । कुछ ने लिखा कि माता उस पाषाण खंड का उपयोग तौल में बाट के रूप में करती थी । सन 1973 में पंडित श्यामाचरण शुक्ल की अध्यक्षता में गजट लेखन के लिए सलाहकार समिति गठित हुई थी । इस समिति ने गजट में लिखा है कि राजिम भक्तिन माता को मिले ’’काला पाषाण’’ राजीवलोचन प्रतिमा के पास थाली में रखा हुआ है यही बात डॉ. बेगलर ने 1873-74 के प्रतिवेदन में भी लिखा है । 1915 और 1972 के बीच नई कहानी प्रचलित हुई जिसमें कहा गया कि माता को नदी में चतुर्भुजी विष्णु प्रतिमा मिली थी ।

तेली राजवंश के होने का संकेत !

राजीवलोचन प्रतिमा की तस्वीर को ध्यान से देखने से ज्ञात होता है कि प्रतिमा की बायीं ओर एक गोलाकार काला पाषाण और दायीं ओर एक प्रतिमा रखी है । जो गोलाकार पाषाण रखा है, उसका भार 14-15 किलोग्राम का होना बताया जाता है और इसे पुजारी ’’सालिग्राम’’ कहते हैं । सामान्यतः सालिग्राम 200-250 ग्राम का होता है । कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह गोलाकार पाषाण खंड प्राचीनकाल का शिवलिंग है जिसे ’’शिवपिंडी’’ कहा जाता है । तो क्या राजिम भक्तिन माता वास्तव में शिव उपासक थी, जिसे विष्णु उपासक प्रचारित करने चतुर्भुजी प्रतिमा मिलने की कहानी बनाई गई थी ? इसी तरह दायीं ओर रखी प्रतिमा में एक भद्र पुरुष और एक भद्र महिला बैठी हुई है तथा दोनों ओर एक पुरुष और एक महिला खड़ी हुई दिखाई दे रही हैं । मंदिर के पुजारी इसे बालाजी बताते हैं । इसी प्रतिमा की हूबहू अनुकृति तेलिन मंदिर में है, जिसे राजिम माता का  सती स्तंभ कहा जाता है । इस स्तंभ में सूर्य, अर्धचंद्र और घानी उकेरा गया है। सूर्य सूर्यवंशी और चंद्र चन्द्रवंशी शासकों का राजचिन्ह है। इसमें घानी होना किसी तेली राजवंश का होना संकेत करता है।

मूर्ति को लेकर है मत भिन्नता

 प्रो. विष्णु सिंह ठाकुर के अनुसार राजिम भक्तिन माता का जिस स्थान पर मंदिर बना है, वहीं वह सती हुई थी और उसी के स्मरण का प्रतीक यह सती स्तंभ है। पं. चंद्रकांत पाठक कृत श्रीमद्रजीवलोचन महात्म्य में पद्मावती और विजयानंद वैश्य की कहानी है जो पुत्र-पुत्री के साथ यहां आकर बस गए थे । उन्हें माघ शुक्ल त्रयोदशी के दिन बैकुंठ धाम प्राप्त हुआ था । मंदिर के गर्भगृह की कथित योगमाया-बालाजी की प्रतिमा वास्तव में पद्मावती और विजयानंद के होने का सुदृढ़ संकेत मिलता है क्योंकि इस नगर का नाम राजीवपुर से बदलकर पद्मावतीपुरी हो गया था । निःसंदेह पद्मावती दिव्य नारी रही होगी, तभी नगर का नामकरण उसके नाम पर हुआ था ।

कालांतर में पद्मावतीपुरी का नाम परिवर्तित होकर तेलिन माता के नाम पर राजिम हुआ। इन दोनों माताओं के बीच कोई अंतरसंबंध है या दोनों एक ही हैं या दोनों बिल्कुल भिन्न हैं ? प्रचलित कहानी के अनुसार राजिम माता अपने आराध्य को  लोचन  भगवान कहती थी। विभिन्न साहित्यों में मिली जानकारी के अनुसार शिव जी के नाम क्रमशः त्रिलोचन, सर्वलोचन एवं मधुकलोचन हैं। विष्णु जी के सुलोचन एवं रविलोचन नाम शास्त्रों में हैं । श्रीराम को राजीवलोचन नाम 16 वीं सदी में रामचरितमानस की रचना उपरांत प्रचारित हुआ है । गौतम बुद्ध के द्वितीय काय को  भी लोचन कहा जाता है । इसका वर्णन बौद्ध दर्शन के त्रिकाय वाद में मिलता है। बुद्ध धर्म के जानकारों के अनुसार बुद्ध के अवलोकितेस्वर प्रतिमाओं के भी चार या चार से अधिक भुजाएं होती हैं । नालंदा एवं कंबोडिया में चतुर्भुजी या बहुभुजी बुद्ध प्रतिमाएं मिलती हैं । इतिहासकारों ने सिद्ध कर दिया है कि राजिमलोचन मंदिर की चतुर्भुजी प्रतिमा श्रीराम का नहीं है। यद्यपि इनके भी ऐसे प्रतिमा होने की बात कही जाती है । अब दो ही विकल्प बचे हैं, यह प्रतिमा या तो विष्णु की हैं या अवलोकितेश्वर की । मंदिर परिसर में बुद्ध की भूमिस्पर्श मुद्रा में प्रतिमा है, जिसे राजा जगतपाल कहा जाता है । गर्भगृह के प्रतिमाओं की पहचान के लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता है ।

राजिम दर्शन में अदभुत वृतांत

राजिम भक्तिन माता की कहानी के विकास के क्रम डॉ. लक्ष्मीचंद देवांगन द्वारा लिखित राजिम दर्शन में वृतांत अद्भुत है । इन्होंने लिखा है- " दूसरे दिन, राजा त्रिवेणी संगम में स्नान कर अपने अराध्यदेव शिव भगवान एवं मूर्ति विहीन मंदिर के दर्शन से निवृत्ति हो, राजिम तेलिन के घर जाकर स्वर्ण के साथ पलड़े में सवा पत्ता तुलसी रख, शिला के बराबर स्वर्ण दे, राजिम भक्तिन से भगवान का शिला प्राप्त किया । भग्न मंदिर को जीर्णाेद्धार कराकर कांकेर के कंडरा राजा के साथ हुए युद्ध में बचे हुए पुजारी को पूजा के लिए नियुक्त किया तथा नाना प्रकार के अनुष्ठान एवं पूजा करवाकर भगवान के शिला को प्रतिष्ठित कराया । जैसे ही शिला सिंहासन पर प्रतिष्ठित हुई, भगवान राजीवलोचन स्वयं अपने पूर्ण रूप में अवतरित चतुर्भुजी रूप- शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए पद्म के नाल पर गज ग्राह के अंकित माथे पर किरीट मुकुट, कानों में कुंडल, गले में कौस्तुभ मणि के हार, हृदय पर भृगुलता के चिन्ह, हाथों में कंगन, कमर में करधन, पीताम्बर की काछनी, बायीं ओर लक्ष्मी जी तथा दायीं ओर भू-देवी सहित एक ही शिला में विद्यमान हुए, राजा जगतपाल देव भगवान राजीवलोचन के मूर्ति को मंदिर में राजा रत्नाकर मन वांछित फल देने वाले मूर्ति के दर्शन कर अपने को धन्य माना और भगवान राजीवलोचन के प्रबंध निमित्त राजिम से 10 मिल पर सालमली ग्राम (रोहिना जहां आज भी हजारों साल एक पुराना सालमली सेमल का वृक्ष है) को भोगराज के निमित्त अर्पण किया । जो कई राज्य बदलने पर भी मंदिर के जागीर में है । इसी काल में राजा जगपालदेव ने भी राजिम में एक मंदिर बनवाया और उसमें राम, लक्ष्मण, जानकी की मूर्ति प्रतिष्ठित कर अपना नाम उज्ज्वल कर भगवान राजीवलोचन के प्रांगण में मूर्ति के सामने ध्यानावतीत मुद्रा में बैठ गए । उपर्युक्त तथ्य मंदिर के जगमोहन (महामंडप) चित्रित छोटे शिला में है। परंतु इतिहासकार इसे गौतम बुद्ध की मूर्ति मानते हैं । 

बदलते रहा है राजिम का नाम

डॉ. देवांगन के इस कथन में सतयुग के राजा रत्नाकर, द्वापर के जगतपाल और 12 वीं सदी के जगपाल देव के एक साथ मिल जाने से खिचड़ी सी बन गई है । इस कथन से यह भी प्रमाणित होता है कि राजिम भक्तिन माता को जो शिला मिली थी वह वही है, जो विष्णु प्रतिमा के निकट थाली में रखी है तथा भगवान विष्णु की प्रतिमा मानव निर्मित न होकर अलौकिक विधि से भगवान की कृपा से प्रकट हुई थी । जिस सालमली ग्राम का उल्लेख किया गया है, उसका विवरण कलचुरी राजा जगपाल देव द्वारा उत्कीर्ण 3 जनवरी सन 1145 के शिलालेख में है । इस वाक्य खंड को जिन्हें जिस रूप में ग्रहण करना है वे कर सकते हैं लेकिन यह ऐतिहासिक सत्य है कि 12 वीं सदी में भगवान के साक्षात् प्रकट होने की घटना अविश्वसनीय है । अन्यथा जगपाल देव के शिलालेख में इसका विवरण अवश्य अंकित किया गया होता । 

प्राचीन से अर्वाचीन काल तक राजिम नगर का नाम ऐतिहासिक कारणों से परिवर्तनीय रहा है। श्रीमद्रजीवलोचन महात्म्य के अनुसार त्रेता युग में नगर का नाम राजिवनयन या राजीवपुर था। कालांतर में यह नाम परिवर्तित होकर पद्मावतीपुरी तथा कमल क्षेत्र हुआ था। कलचुरी सामन्त जगपाल ने जगपालपुर बसाया था, जो राजिम से अभिन्न ही रहा होगा। प्रचलित मान्यतानुसार कलचुरी काल से स्थान नाम राजिम ही है। इतिहासकार बालचंद्र जैन के अनुसार उन्हें रायपुर के पुरानी बस्ती में 15 वीं सदी के महाराज नामक व्यक्ति का शिलालेख मिला था, जिसमें उसके द्वारा राजिवनयन में जगन्नाथ का मंदिर बनाया जाना उल्लेखित है। श्री जैन ने राजिवनयन स्थान नाम को राजिम ही माना है। इस नामकरण के इतिहास में पद्मावतीपुरी इतिहासकारों के लिए पुराना होकर भी नया है क्योंकि इसकी चर्चा किसी इतिहासकार ने नहीं की है। 

दक्षिणाभिमुख तेलिन मंदिर

राजिम के संबंध में अधिकांश इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने राजिमलोचन और परिसर के अनुषांगिक देवालयों का विस्तार से वर्णन किया है। लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक एलेग्जेंडर कनिंघम को छोड़कर किसी अन्य ने  तेलिन मंदिर के साथ समुचित न्याय नहीं किया है । इसमें कोई दो मत नहीं है कि यह मंदिर कलचुरी काल में निर्मित है, इसलिए अर्वाचीन है। लेकिन तेलिन मंदिर में प्रदक्षिणापथ है जो केवल राजिमलोचन मंदिर और रामचंद्र मंदिर में ही है अर्थात ये तीनों मंदिर ही लोक में बराबर महत्व के रहे हैं ।

तेलिन मंदिर में संभवतः राजिम शब्द 1940 के दशक में जीर्णोद्धार के दौरान जोड़ा गया था। यह मंदिर दक्षिणाभिमुख है और मंदिर के भीतर शिवलिंग एवं नंदी की स्थापना है तथा एक पाषाण स्तंभ में एक भद्र स्त्री और पुरुष बैठे हुए तथा 2 स्त्रियों के खड़े हुए अवस्था में चित्र उकेरा गया है । इस स्तंभ में सूर्य,  अर्धचंद्र तथा बैल जूते हुए घानी का भी चित्र उकेरा गया है । इसी चित्रांकन के आधार पर इसे राजिम भक्तिन माता का सती स्तंभ कहा जाता है। विद्वान घानी और बैल का भावार्थ भिन्न-भिन्न अर्थों में ग्रहण करते हैं। एलेग्जेंडर कनिंघम के अनुसार यह स्थान राजिम भक्तिन माता के जीवन काल के उत्तरार्ध में निवास स्थल था । वे यह भी मानते हैं कि यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है । अब सवाल उठता है कि क्या राजिम भक्तिन माता शिव उपासक थीं ? विद्यमान साक्ष्य तो यही संकेत करता है कि राजिम भक्तिन माता के आराध्य लोचन भगवान शिव ही थे । भगवान शिव को शास्त्रों में त्रिलोचन, सर्वलोचन और मधुकलोचन कहा जाता है । 

राजीवलोचन महोत्सव से माघी पुन्नी मेला तक

राजिम की यात्रा में 3 अंग्रेज अधिकारी/पुरातत्ववेत्ता रिचर्ड जेंकिन्स (1824), डॉ. जे. डी. बेगलर (1869) एवं एलेग्जेंडर कनिंघम (1881-82) में आये थे । इन्होंने ही सर्वप्रथम राजिम के इतिहास का आधुनिक शैली में दस्तावेजीकरण किया है, जिसका वृतांत विस्तार से लिखा जा चुका है । रिचर्ड जेंकिन्स को पंडों ने बताया था कि पूर्वकाल में राजिम मेला 3 माह का होता था लेकिन कानून व्यवस्था के कारण तत्कालीन मालगुजार (महाड़िक) ने घटाकर एक माह का कर दिया था । उसी मेला की अवधि सन 1947 में 15 दिनों का रह गया ।  स्व. जीवन लाल साव ने अपने संस्मरण में लिखा है कि 1942-43 में संगम में कमर के आते तक अर्थात करीब तीन से चार फुट पानी भरा रहता था । छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद तत्कालीन जोगी सरकार ने राजिम मेला को आकर्षक बनाने 'राजीवलोचन महोत्सव'  प्रारम्भ किया था । बाद में रमन सिंह सरकार बनी तब राजिम मेला का नाम  'राजिम कुंभ' किया गया । इस नाम पर पुरी के शंकराचार्य जगद्गुरु निश्चलानंद सरस्वती ने आपत्ति की थी तब राजिम कुंभ नाम को बदलकर 'राजिम कुंभ कल्प' कर दिया गया । बाद में भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली  सरकार ने 2020 में इस नाम को बदलकर  'माघी पुन्नी मेला' कर दिया है।

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