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छत्तीसगढ़ में धूमधाम से मनाई गई गौरा-गौरी पूजा, आज निकाली जा रही शोभा यात्रा और हो रहा विसर्जन

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रायपुर। दीपावली के अवसर पर छत्तीसगढ़ के गांवों और शहरों में पारंपरिक गौरा-गौरी पूजा का पर्व बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया गया। परंपरा के अनुसार दीपावली की रात मिट्टी से बने गौरा-गौरी (भगवान शिव और पार्वती का प्रतीक) की स्थापना कर पूजा-अर्चना की गई। लोकगीतों और नृत्य के बीच उनका विवाह कराया गया।


बुधवार को गौरा-गौरी की शोभायात्रा और विसर्जन का आयोजन किया जा रहा है। इसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु शामिल हो रहे हैं। गाजे-बाजे और पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर महिलाएं और युवतियां नृत्य करती हुई गौरा-गौरी की झांकी लेकर चल रही हैं। हर्षोल्लास के माहौल में पूरे क्षेत्र में भक्ति और उत्सव का रंग नजर आ रहा है।

आदिवासी परंपरा अब बन चुकी लोक उत्सव

गौरा-गौरी पूजा की परंपरा मुख्यतः आदिवासी समाज में प्रचलित रही है, लेकिन अब यह पर्व सभी समाजों द्वारा श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। दीपावली की रात कुम्हारों के घर से मिट्टी की प्रतिमाएं लाकर एक निश्चित स्थान पर स्थापित की जाती हैं। इसके बाद लोकगीतों और पारंपरिक नृत्य के बीच पूरी रात पूजा-अर्चना और श्रृंगार का कार्यक्रम चलता है।

अगली सुबह गाजे-बाजे के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है, जिसमें महिलाएं सिर पर कलश रखकर शामिल होती हैं। पारंपरिक पोशाकों में सजे युवा और महिलाएं ढोल-मांदर की ताल पर नृत्य करते हुए चलते हैं।

शाम तक होता है विसर्जन

दोपहर बाद गौरा-गौरी के विसर्जन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। परंपरा के अनुसार दो प्रकार के गौरा-गौरी माने जाते हैं — जिनमें ‘ईसर गौरा’ का विसर्जन शाम तक किया जाता है।

सोंटा खाने की आस्था

छत्तीसगढ़ में गौरा-गौरी और गोवर्धन पूजा के अवसर पर हाथों पर सोंटा (छड़ी) खाने की परंपरा भी प्रचलित है। लोकमान्यता है कि इससे दुख, संकट और परेशानियां दूर होती हैं तथा जीवन में सुख-समृद्धि आती है।

संस्कृति, आस्था और लोकगीतों का संगम

गौरा-गौरी पूजा अब छत्तीसगढ़ की संस्कृति और लोक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुकी है। दीपावली की रात से लेकर विसर्जन तक का यह पर्व लोकगीतों, नृत्य और सामूहिक आस्था का प्रतीक है।

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