आरंग। इन दिनों अंचल के गांव गांव गली गली में सुआ नृत्य की धूम है। वहीं आरंग में भी बालिकाएं आकर्षक छत्तीसगढ़ी परिधान में सुआ नृत्य करती नजर आईं।छत्तीसगढ़ में दीपावली पर्व से पहले सुआ नाचने की परंपरा है। महिलाओं और बच्चों की टीम टोली बनाकर गली-मोहल्लों में घर घर जाकर सुआ नृत्य प्रस्तुत कर रही हैं। बदले में इन्हें लोगों द्वारा -द्वारा खुशी खुशी उपहार स्वरूप भेंट दिया जाता है। छत्तीसगढ़ में सुआ नृत्य की परंपरा कब से प्रारंभ हुई इसकी कोई प्रमाणित जानकारी नहीं है और न ही इसका कोई लिखित अभिलेख है। माना जाता है युवतियां अपने मन की बातों को सुआ पक्षी के सामने गाती रही होंगी। यह बातें धीरे धीरे प्रचलन में आ गए होंगे और आगे चलकर यह सुआ गीत और फिर गीत के साथ नृत्य में बदल गया।
पहले नहीं था मनोरंजन का कोई साधन
आधुनिक समाज में लोगों के लिए टीवी, सिनेमा मोबाइल गेम्स, कंप्यूटर गेम्स, खेल सामग्री, उद्यान, क्लब इत्यादि अनेक मनोरंजन के साधन उपलब्ध है लेकिन प्राचीन काल में ऐसा कोई साधन नहीं होता था । सुआ ही एक ऐसी पक्षी है जो बहुत सुंदर और हू-ब-हू मनुष्य की भाषा का नकल करती है। इसलिए पहले घर घर सुआ पालते थे। इस तरह युवतियां अपने मन की बातों को गीत के रूप में प्रकट करने लगी। जो आज सुआ नृत्य के रूप में जाना जाता है।
माना जाता है युवतियां अपने मन की बातों को सुआ पक्षी के सामने गाती रही होंगी। यह बातें धीरे धीरे प्रचलन में आ गए होंगे और आगे चलकर यह सुआ गीत और फिर गीत के साथ नृत्य में बदल गया।सुआ यानी तोता एक शाकाहारी पक्षी है जो हू-ब-हू मनुष्य की जुबान बोल सकता है। इसीलिए बालिकाएं इसे प्रतीक मानकर गीत गाकर नृत्य करती है जिसमें धार्मिक, सामाजिक व संदेश परक गीत गाए जाते हैं।इस नृत्य में युवतियां कम से कम पांच छः से अधिक के समूह में गोल घेरा में खड़ी होती है। जिसमें आधी बालिकाएं गाती है और आधी दोहराते हुए नृत्य करती है ।इस दौरान बालिकाओं द्वारा दोनों हाथों से एक लय में थपोल या ताली बजाया जाता है जो वाद्ययंत्र का काम करती है।
यह एक ऐसा नृत्य है जिसमें किसी तरह के वाद्ययंत्रों का उपयोग नहीं होता है। यह गीत सिर्फ बालिकाओं या महिलाओं द्वारा ही गाकर नृत्य के साथ किया जाता है। सुआ नृत्य समूह में ही किया जाता है। यह एकल नृत्य नहीं है।