आनंदराम पत्रकारश्री ( महासमुन्द ) । महासमुन्द के महेश राजा, लघु कथाकार, कम शब्दों में अपनी बात कहने की अदभुत कला। महेश राजा साहित्य जगत में किसी परिचय के मोहताज नहीं है। गुरू पूर्णिमा के दिन एक साहित्यिक गुरू के देहावसान की सूचना से मन व्यथित है। मैंने जब से होश संभाला, महेश राजा की लघु कथाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते रहे हैं। तब लगता था कि पता नहीं महेश राजा कैसे होंगे? एक दिन दूरभाष केंद्र महासमुन्द में उनसे भेंट हो गई। तब वे न मुझे पहचानते थे, न मैं उन्हें। अखबारों में एक-दूसरे का नाम पढ़कर एक दूसरे को जानते थे।
स्मृतियां शेष: लघु कथाओं के राजा 'महेश' नहीं रहे, उनकी कृतियां अमिट छाप छोड़ने वाली हैं
बीएसएनएल के कमजोर नेटवर्क के प्रसंग पर बात हुई तब उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा-"बीएसएनएल मतलब भीतर से नहीं लगता, बाहर से नहीं लगता, भगवान से नहीं लगता। हम तो मामूली इंसान हैं भाई"
उनका यह लहजा मुझे बहुत पसंद आया। परिचय हुआ तो स्वभाव के अनुरूप मुस्कुराते हुए कहने लगे-देखिए आनंद भाई! हम एक शहर में रहते हैं। लेखन से जुड़े हैं। और एक दूसरे को नहीं पहचान रहे हैं। मिलकर अच्छा लगा। फिर मिलने-जुलने का, विभिन्न अवसरों पर बातें करने का सिलसिला चलता रहा। आज सूचना मिली कि महेश राजा ने देह त्याग दिया है। वे सशरीर भले ही हमारे बीच नहीं रहे। यादों में हमेशा जीवित रहेंगे। उनकी दिव्य आत्मा जहाँ भी रहेगी, समाज में ज्ञान का उजियारा फैलाते रहेगी।
महेश राजा का जन्म 26 फरवरी 1957 को हुआ था। उन्होंने बी.एस.सी.,एम.ए. साहित्य.,एम.ए.मनोविज्ञान की डिग्री ली। भारतीय दूर संचार निगम लिमिटेड में जनसंपर्क अधिकारी रहे। 1983 से पहले उन्होंने कविता,कहानियाँ लिखी।फिर लघुकथा और लघुव्यंग्य पर खास रचनाएँ की। उनकी दो पुस्तकें बगुलाभगत और नमस्कार प्रजातंत्र प्रकाशित हुई है। कागज की नाव,संकलन वर्तमान में प्रकाशनाधीन थी।
दस साझा संकलन में लघुकथाऐं प्रकाशित हुई हैं। महेश राजा की रचनाएं गुजराती, छतीसगढ़ी, पंजाबी, अंग्रेजी,मलयालम और मराठी,उडिय़ा में अनुदित हैं। पचपन लघुकथाऐं रविशंकर विश्व विद्यालय के शोध प्रबंध में शामिल हैं। कनाडा से वसुधा में निरंतर प्रकाशन। भारत की हर छोटी,बड़ी पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन और प्रकाशन। आकाशवाणी रायपुर और दूरदर्शन से उनकी लघु कथाओं का प्रसारण होता रहा है।
" बरसात का मौसम आया।
नेताजी ने पेड़ लगाया।
पेड़ को बकरी खा गई ।
बकरी को नेताजी खा गए।
यह सिलसिला सालों से चल रहा है।
ऐसे ही हमारा लोकतंत्र पल रहा है।
पर्यवारण भी कागज में संरक्षित है।
नेताजी भी हर साल पौधे लगाकर सुरक्षित हैं।"