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विष्णु नागर का व्यंग्य: दूसरों के सिर पर छत मुहैया कराने वाले इस 'महान इनसान' के पास अपना मकान तक नहीं है

विष्णु नागर का व्यंग्य : उनकी यही श्टाइल तो अच्छे-अच्छों को मार देती है! 'मेरे नाम घर नहीं मगर मैंने लाखों (करोड़ों नहीं कह सकते थे?) बेटियों को घर का मालिक बनाया!' मतलब वे देश की समस्त त्यागमूर्तियों के चचा के चचा के भी चचा हैं या शायद उनके भी चचा हों!


तो समस्या यह है कि दूसरों के सिर पर छत मुहैया कराने वाले इस 'महान इनसान' के पास अपना मकान तक नहीं है! बेहद दुख और अचरज की बात है! कम से कम दो कमरों का मकान तो होना चाहिए था, हालांकि इसकी 'महानता' इस छोटी सी जगह में समा नहीं पाती! मेरा पत्थर का दिल यह सुनकर पिघल के पानी हो गया है! डर लग रहा है कि यह जानकार कहीं मेरा दिल भांप बनकर उड़ न जाए! खैर देखा जाएगा! बात अपनी नहीं, उनकी करनी है! तो वह 'महान आदमी' लाखों घर दूसरों को देकर भी बेघर है! भारत में हुआ है ऐसा कोई 'महान आदमी' आज तक! है कोई एक उदाहरण!

रतन टाटा को इस 'महान' ने सबसे छोटी और सबसे सस्ती कार बनाने के लिए लगभग मुफ्त में जमीन दी थी। उन्हें इतना तो सोचना चाहिए था कि एक मकान इस 'महान' के लिए भी बनवाकर दे देते! टाटा परिवार तो बहुत उदार माना जाता है, फिर भी ऐसी बेरुखी,ऐसी बेरहमी! अच्छा उनको छोड़ो, अडानी- अंबानी भी तो गुजराती हैं! वे क्या इतना नहीं कर सकते थे? और अब तक नहीं किया है, तो अब तो करके दिखा दें! देश को बदनामी से तो बचाएं! और वे भी नहीं करते तो गुजरात की जनता, 'गुजरात मॉडल' के इस जनक के लिए इतना प्रबंध तो कर ही सकती थी! एक बेघर को मुख्यमंत्री बनाया और फिर उसे प्रधानमंत्री बनाने के लिए दिल्ली भेज दिया कि अब जो इंतजाम करना है, देश की जनता करे! वाह भाई आप बहुत उस्ताद हो!

मकान नहीं तो एक फ्लेट दे देते, चाहे दसवीं मंजिल पर देते! उसमें लिफ्ट न होती तो भी चलता! चचा अभी जवान जैसे हैं, धड़ाधड़, फटाफट चढ़ और उतर जाते! चलो दो कमरे का नहीं तो एक कमरे-किचन का दे देते! एक आदमी, एक कमरा और एक फकीर! ठीक रहता! और अगर गुजरात वाले नहीं कर पाए, उनसे चूक हो गई, गलती हो गई तो अब हम देशवासियों का दायित्व बनता है कि उस स्वघोषित बेघर के लिए कुछ करें! आप सोचिए अमेरिकी और फ्रांस आदि के राष्ट्रपति हमारे बारे में क्या सोचेंगे! जो थोड़ी-बहुत इज्जत हमारे लिए उनके दिल में रही होगी, वह भी काफूर हो जाएगी! क्या सोचेंगे कि ये भारतीय इतने कृतघ्न होते हैं कि लाखों बहनों को घर देने वाले के पास मकान तक नहीं देते? देश को बदनामी से बचाने के लिए हमें फौरन दस-दस रुपए जमा करके उन्हें भेजना चाहिए। 140 करोड़ लोग एक- एक रुपया भी देंगे तो उनका महल 2024 तक बनकर तैयार हो जाएगा! पहले दस रुपए मेरी ओर से!

वैसे सोचनेवाली बात ये है कि वे तेरह साल तक मुख्यमंत्री रहे और अब करीब दस साल से प्रधानमंत्री हैं और हैं एकदम अकेले! इतना बड़ा आदमी इतनी बचत तक नहीं कर पाया कि अपना एक फ्लेट बनवा पाता और हम हैं कि मजे से एक फ्लेट में रह रहे हैं, जबकि हम तो उनके मुकाबले कुछ भी नहीं, कुछ भी! हम कीड़ों का अपना एक मकान और गुजरात के उस शेर का नहीं! विरोधी कहते हैं कि साहेब, सारी तनख्वाह तो कपड़ों पर लुटा देते हैं बल्कि दिन में रोज छह कपड़े बनवाने के लिए उन्हें हर महीने उधार लेना पड़ता होगा तो उनका अपना मकान कैसे बन सकता था! कुछ कहते हैं कि फालतू की नाटकबाजी है! मुख्यमंत्री थे तो मकान क्या इनके पास महल था! अब भी महल में रह रहे हैं और अब उससे भी बड़ा महल, राष्ट्रपति भवन के बराबर या उससे भी बड़ा अपने लिए बनवा रहे हैं। वहां वे नहीं रहेंगे तो क्या भूत -प्रेत रहेंगे? और क्या ये महल यह सोच कर बनवा रहे हैं कि उसमें आकर कोई और प्रधानमंत्री रहेगा?


और मान लो, जनता ने उन्हें इस पद से लुढ़का दिया तो रिवायत यह है कि उन्हें सरकारी बंगला मिलेगा और वह भी उनकी अपनी पसंद का, जहां वे आजीवन रह सकते हैं और उनकी अपनी कल्पना के अनुसार तो वे 110-120 साल तक तो जीवित रहेंगे, फिर मेरा मकान, मेरा मकान क्यों?


और यह सब भी मान लो, नहीं हुआ तो जिन लाखों बेटियों को इन्होंने मकान दिया है, वे बड़े दिल की हैं,नेक हैं! एक- एक दिन तो अपने 'पापा' को अपने यहां रख ही लेंगी और जो भी उनकी हैसियत के हिसाब से अच्छा से अच्छा होगा, खिलाएंगी! और एक दिन तो वे मेरे यहां आकर भी रह सकते हैं। हम विरोधी हैं, दुश्मन नहीं! और सुनिए, एक दिन का मतलब, एक दिन नहीं होता!वन प्लस वन का आफर है! वन प्लस टू के लिए भी तैयार हूं! थ्री कर दूं पर समस्या यह है कि इनसे बात क्या करूंगा? बंदे को सच बोलने की जरा तो आदत हो!


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