महासमुंद। नगर के स्वामी आत्मानंद विद्यालय सभागार में विश्व संगीत दिवस पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। लुप्तप्राय देवारगीत पर केंद्रित व्याख्यान का आयोजन भारतीय सांस्कृतिक निधि महासमुंद अध्याय के संयोजन में हुआ। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ी लोक गायन परंपरा में देवार समुदाय का योगदान पर विद्वान वक्ताओं ने प्रकाश डाला । धाकड़ देवार द्वारा रुंजु की सुमधुर तान के साथ प्रस्तुत देवार गीत की जमकर सराहना हुई।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि व प्रमुख वक्ता भाषाविद, साहित्यकार डॉ चितरंजन कर रायपुर थे। अध्यक्षता इंटेक के छत्तीसगढ़ प्रमुख अरविंद मिश्रा ने की। विशिष्ट अतिथि सुनील बघेल रायपुर, माधुरी कर, महासमुंद अध्याय के संयोजक दाऊलाल चंद्राकर थे।
इस अवसर पर साहित्यकार डॉ चितरंजन कर ने कहा कि देवार उच्च कोटि के ओझा (बैगा) हैं। ग्राम देवता के पुजारी देवार को माना गया है। इनमें दैवज्ञ, अदृश्य को देख लेने की अदभुत क्षमता होती है। ये लोग प्रकृति से जुड़े हैं। उन्होंने देवारों के बारे में बताया कि ये ग्राम देवता में दीया जलाने वाले लोग थे। इनकी जाति देवार से ही देवारी शब्द की उत्पत्ति हुई है, जिसे हम दीपावली के नाम से भी जानते हैं। उन्होंने आगे कहा कि भीख मांगने वाले देवार को जोगी देवार के नाम से जाना जाता है।
इनकी संख्या अब लुप्त हो गई है। आकाशवाणी रायपुर से चिंता राम देवार ने पहला कार्यक्रम 60 के दशक में प्रस्तुत किया। लोकगायन की शुरुआत देवार ने ही किया। ये देवज्ञ, गंधर्व हैं। इनकी कला प्रणाम करने योग्य हैं। उन्होंने कहा कि देवार संस्कृति को संरक्षित करने की आवश्यकता है, यदि संस्कृति नहीं रहेगी तो संस्कार नहीं रहेगा।
उन्होंने आयोजन की सराहना करते हुए कहा कि यह आयोजन नहीं है, सांस्कृति विरासत का संरक्षण है। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता है। आज देवार संस्कृति संकट ग्रस्त है, विलुप्त होने के कगार पर है। इसे बचाने की आवश्यकता है। हमने इनकी कला को मनोरंजन का साधन मानकर बड़ी भूल की है।
इस अवसर पर इंटेक के छत्तीसगढ़ संयोजक अरविंद मिश्रा ने कहा कि देवार यायावर (घुमंतु) हैं । प्रकृति से जुड़े हुए वर्ग हैं। ये पक्का मकान में रहना पसंद नहीं करते हैं। सुअर पालन यूरोप में विश्व का सबसे बड़ा व्यापार है। यदि प्रोत्साहित किया जाए तो यहां देवारों की स्थिति सुधारने में मदद मिल सकती है। टैटू आज 5 हजार करोड़ रुपये का वैश्विक कारोबार है। छत्तीसगढ़ में गोदना आयोग बनाने की जरूरत है। जिससे इस परंपरा गत कला को संरक्षित किया जा सके। विश्व का सबसे
कठिन वाद्य यंत्र वायलिन को माना जाता है, यह देवारों की रुंजु से विकसित हुआ है। जिसे देवार बहुत सरलता से बजाते हैं।
देवारों की संस्कृति को बचाने का प्रयास होना चाहिए। इसके लिए संगीत विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम प्रारंभ करने की जरूरत है। उपस्थित जनों को माधुरी कर ने भी संबोधित किया।
स्वागत उदबोधन में दाऊलाल चन्द्राकर ने कहा कि देवार संस्कृति विलुप्ति के कगार पर है। उन्होंने देवारनीन की मोहनी, दाऊ रामचंद्र देशमुख की चंदैनी गोंदा की विशिष्ट चर्चा की। संचालन रूपेश तिवारी व आभार ज्ञापन सहसंयोजक राजेश्वर खरे ने किया। इस अवसर पर साहित्य, कला, नाट्यमंच, शिक्षा जगत से जुड़े विशिष्टजन बड़ी संख्या में उपस्थित थे।