मौजूदा वक्त में भारत सरकार अरुणाचल प्रदेश में छह बड़े जलविद्युत संयंत्रों का निर्माण करवा रही है। विशेषज्ञों का कहना है कि इनकी लागत बहुत ज़्यादा है। इनसे पर्यावरण को काफ़ी नुकसान होता है। साथ ही, मानवाधिकार से जुड़ी हुए अनेक चिंताएं भी हैं। इन सबके बावजूद, सरकार का पूरा ज़ोर इन परियोजनाओं पर है। ऐसे में, सरकार की मंशा पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
मिक्रो का कहना है, “एक मल्टीनेशनल कॉन्ट्रैक्टर, लार्सन एंड टुब्रो [एल एंड टी] ने पहले से ही [दिबांग] बांध बनाने की दिशा में सड़कों और पुलों के निर्माण के लिए काम करना शुरू कर दिया है।” लोअर सुबनसिरी प्रोजेक्ट के इस गर्मी में चालू होने की उम्मीद है।
आंकड़े निर्माण के विभिन्न चरणों में छह बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं को दिखाती हैं, जबकि 13 को विभिन्न कारणों से रोक दिया गया है। 2003 के बाद से, अरुणाचल प्रदेश में 21 बांधों पर ‘सहमति’ दी गई, या उनका मूल्यांकन किया गया, जिनमें से 13 का निर्माण अभी शुरू किया जाना बाकी है। सीईए, परियोजनाओं की सहमति तब देता है, जब वह प्रस्ताव के तकनीकी-आर्थिक पहलुओं से संतुष्ट हो जाता है।
पानी और ऊर्जा के मुद्दों की निगरानी और विश्लेषण करने वाले पुणे स्थित एक केंद्र, मंथन अध्ययन केंद्र के समन्वयक और शोधकर्ता श्रीपद धर्माधिकारी ने कहा कि मूल्यांकन करते समय, सीईए को “यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता होती है कि परियोजना, नदी बेसिन के लिए सर्वोत्कृष्ट यानी ऑप्टिमल है।” ऐसा ही इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 2003 में निर्धारित किया गया है।
अपस्ट्रीम में चीन द्वारा बांधों के निर्माण के डर को आधार बनाकर अरुणाचल में बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं को सही ठहराया जाता है। चीन में बहने वाली यारलुंग सांगपो, भारत में प्रवाहित होने पर ब्रह्मपुत्र नदी बन जाती है।
दोनों देशों के बीच दुनिया का सबसे लंबा अनसुलझा सीमा विवाद – लगभग 4,000 किलोमीटर – है। इसमें अरुणाचल प्रदेश की स्थिति पर विवाद भी शामिल है।
वैसे तो, ऐतिहासिक रूप से दोनों देशों के बीच 1962 में हुए युद्ध के बाद से शांति ही रही है, लेकिन जून 2020 में लद्दाख में, दोनों देशों के सैनिकों के बीच ताजा झड़पें हुईं। इससे 45 वर्षों के दौरान, पहली बार दोनों देशों ने इतनी बड़ी संख्या में अपने सैनिक गंवाए।
वैसे तो, अरुणाचल प्रदेश में बांध निर्माण पर ज़ोर देने के पीछे यह कारण है, इसका हवाला देते हुए कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया गया है। लेकिन कई अखबारों के लेखों में अनाम अधिकारियों का हवाला दिया गया है, जिसमें भारत में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अखबार, द् टाइम्स ऑफ इंडिया भी शामिल है, जिसमें कहा गया है कि भारत को अरुणाचल में बांध बनाने की जरूरत है क्योंकि चीन अपस्ट्रीम बांधों के अपने नियंत्रण से “जल युद्ध” शुरू कर सकता है।
मुंबई स्थित थिंक टैंक, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) के निदेशक, नीलांजन घोष ने कहा कि कथित खतरा “विचित्र और अवास्तविक लगता है।”
उनका कहना है कि ब्रह्मपुत्र का अधिकांश पानी, भारतीय क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद नदी में आ जाता है। उन्होंने मानसून के मौसम में, बाढ़ चेतावनी के रूप में, दोनों देशों के बीच सहयोग के साक्ष्य की ओर भी इशारा किया।
हम अपनी ज़मीन पर शरणार्थी नहीं बनना चाहते… बांधों के बजाय हमें आजीविका, अस्पतालों और सामुदायिक विकास केंद्रों के लिए सहयोग की ज़रूरत है।
हालांकि, मिक्रो और अन्य स्थानीय समुदाय, विकास के इस रूप पर सवाल उठाते हैं।
अन्य ऊर्जा उत्पादन विधियों के विपरीत, जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण में लंबी देरी – कभी-कभी दशकों तक – अक्सर सरकार द्वारा परियोजनाओं को, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों, जैसे नेशनल हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड को वापस देने के कारण होता है।
इसके अलावा, कम से कम 13 निजी कंपनी के स्वामित्व वाली परियोजनाओं को परियोजना अधिकारियों को “वापस” कर दिया गया है। यह कदम परियोजनाओं के साथ, आगे बढ़ने के लिए कंपनियों की अनिच्छा को रेखांकित करता है। दरअसल, उन्हें बढ़ती लागत और डाउनस्ट्रीम कम्युनिटीज के भारी विरोध का डर है।
मंथन अध्ययन केंद्र से धर्माधिकारी ने बताया कि कुछ सस्ती तकनीकों की उपलब्धता के बावजूद, परियोजनाएं अभी भी महंगी हैं और जल विद्युत परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए सरकार को सब्सिडी प्रदान करने की आवश्यकता है।
अरुणाचल प्रदेश के विकास के नैरेटिव पर धर्माधिकारी ने कहा कि जब प्रोजेक्ट्स को वित्तीय आधार पर सही नहीं ठहराया जा सकता है तो इसकी जगह विकास के नैरेटिव को आगे बढ़ाया जाता है।
इस क्षेत्र में बांध बनाने की लागत उससे मिलने वाले लाभ की तुलना में बहुत अधिक है।
हालांकि, दो साल पहले उन्होंने और उनकी टीम ने एटालिन बांध के संचालन की लागत की गणना की थी, जब फॉरेस्ट एडवाइजरी कमेटी ने बिजली मंत्रालय से लागत पर अपना अनुमान प्रस्तुत करने को कहा था।
मंथन के शोधकर्ताओं ने पाया कि जलविद्युत परियोजनाओं को व्यावसायिक रूप से आकर्षक बनाने के लिए सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी के बावजूद भी पैदा होने वाली बिजली सस्ती नहीं है। दरअसल, विशेषज्ञों का कहना है कि जरूरत इस बात की है कि सौर और पवन ऊर्जा को मिलाकर एक पैकेज बनाकर कॉर्मिशयल प्लेयर्स को बेचा जाए।
उदाहरण के लिए, लोअर सुबनसिरी परियोजना, जो इस वर्ष के अंत में चालू होने वाली है, इसकी मूल लागत 200 फीसदी से अधिक हो गई है। इसकी बढ़ी हुई लागत 132.11 अरब रुपये है, जो मूल लागत से बहुत अधिक है।
घोष का कहना है, “इन परियोजनाओं के स्थापित होने और चालू होने में आने वाली सभी लागतों के अलावा, अगर हम पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़ी सेवाओं के नुकसान- सेडीमेंट्स यानी तलछट जैसे तत्व, जो मिट्टी की उर्वरता आदि को बढ़ाते हैं- के मूल्य पर ध्यान दें, तो पाएंगे कि इस क्षेत्र में बांध बनाने की लागत, प्राप्त होने वाले लाभ की तुलना में बहुत अधिक है। इसके अलावा, पुनर्वास, विस्थापन और संघर्षों की सामाजिक लागत के बारे में हमें सोचने की जरूरत है?
साभार: दथर्डपोलडॉटनेट